Wednesday, July 18, 2018

इज़रायल में भारतीय वीरों की कहानी



विषय सूची
अपनी बात
अध्याय  1:  इज़रायल की आजादी में भारतीय वीरों की भूमिका: एक संक्षिप्त विवरण
अध्याय  2:  भारत और इज़रायल के बीच सांस्कृतिक संबंध
अध्याय  3:  इज़रायल की आजादी में भारत की भूमिका - विस्तृत कथा
अध्याय  4:   2018 में हाइफा दिवस शताब्दी समारोह
अध्याय  5:  भारतीय सैनिकों द्वारा हाइफा की मुक्ति पर इज़रायल के राजदूत Alon Ushipiz का        भाषण
अध्याय  6:  दूसरे देशों के निर्माण में भारतीय वीरों का बलिदान
निष्कर्ष
परिशिष्ट  1.  इज़रायलियों द्वारा लड़े गए आश्चर्यचकित करने वाले युद्ध
परिशिष्ट  2.   भारत के बाहर हिन्दू साम्राज्य
परिशिष्ट  3 विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ बड़े युद्ध
चित्ररांजलि . हाईफा दिवस उत्सव 23 सितम्बर

अपनी बात


भारत के इतिहास को काफी हद तक दिल्ली और आस पास के क्षेत्र में स्थित विदेशी राजवंशों के इतिहास के रूप में ही लिखा गया है और भारत की अनेक महान हस्तियों के कार्य को कुछ टिप्पणियों तक ही सीमित कर दिया गया है। आज हमारे इतिहास में तुर्क, अफगान, मुगलों, पुर्तगालियों और अंग्रेजों के राजवंश और क्रूर अभियानों के बारे में ही अधिक पढ़ाया जाता है। इन आक्रमणकारियों के खिलाफ हमारे लोगों के प्रतिरोध और सफलता की कहानियों के बारे में बहुत कम बताया जाता है। पाठ्यपुस्तकों में पूर्वोत्तर, दलित और जनजातियों, वनवासियों के इतिहास के बारे में जानकारी का आश्चर्यजनक रूप से अभाव है। विदेशी भूमि पर भारतीयों की सफलता और उपलब्धियों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है। वास्तविकता यह है कि कुछ देशों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण रहे भारतीयों के बलिदान के बारे में शायद ही पढ़ने को मिले।

अन्य देशों के निर्माण में हमारे जवानों के बलिदान को इतिहास के पन्नों से गायब नहीं होने देना चाहिए। इसलिए, मैंने भारतीय सैनिकों की उपलब्धि के अदृश्य हो चुके सुनहरे अध्याय को रेखांकित करने का प्रयास किया है। युद्ध में भारी नुकसान की आशंका से ब्रिटिश सेना के पीछे हटने के बाद जोधपुर और मैसूर के महाराजा द्वारा भेजे गए भारतीय लांसर्स ने 22 व 23 सितंबर 1918 को तुर्क, जर्मन, और आस्ट्रिया की दुर्जेय चौकियों पर अच्छी तरह से जमी, आधुनिक हथियारों से सुसज्जित सेनाओं के खिलाफ एक विषम युद्ध लड़ा। जोधपुर, मैसूर से गए भारतीय सैनिकों की वीरता, साहस, और बलिदान ने सुदूर देश इज़रायल की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी समाधियों और स्मारकों को इज़रायल की वर्तमान सरकार ने अच्छी तरह से रखा है। मैं सौभाग्यशाली हूँ कि वर्ष 2013 में इज़रायल के तटीय शहर हाइफा में हमारे वीरों की समाधियों पर श्रद्धांजलि अर्पित कर सका। हालांकिए भारतीय सेना में अनेक लोगों ने हाइफ़ा युद्ध के बारे में सुना है, पर उन्हें इज़रायल के निर्माण में उस युद्ध के महत्त्व के बारे में पता नहीं है और इसलिए यह पुस्तक उनके लिए भी उपयोगी होगी।

मैं अपनी इज़रायल यात्रा के लिए  Dr. Elihu Richter, Dr. RCA Godbole, Dr. Ithamar Theodore, Yohan Perry का आभारी हूँ। सामग्री को परिष्कृत करने में सहयोग के लिए डॉ. सदानन्द सप्रे. मल्लिका गंगाखेडकर, निकुंज सूद. प्रेम भट्टाराई, बैंगकॉक के प्रमोद कुमार मिश्रा और उमेश मिश्रा का भी आभारी हूँ। कम से कम समय में पुस्तक को प्रकाशित करने में तत्परता से सहयोग के लिए विद्या भारती के काशीपति जी और अवनीश भटनागर जी का भी आभारी हूँ।

इज़रायल में भारतीय वीरों की कहानी 

आधुनिक इज़रायल के निर्माण में भारत की भूमिका

आधुनिक इज़रायल के इतिहास की शुरुआत 900 भारतीय वीरों के सर्वोच्च बलिदान से होती है, जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 23 सितंबर 1918 को इज़रायल की मुक्ति एवं फिलिस्तीन के बंदरगाह को तुर्की साम्राज्य से मुक्त करवाने में मृत्यु का वरण किया था ।
इज़रायल की सरकार आज भी उनकी समाधियों की देखभाल करती है । उनके नाम, वीरता एवं बलिदान को इज़रायल में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया गया है।
भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी हाइफा के बहादुर शहीदों को श्रद्धांलजि अर्पित करते हुए 

अध्याय . 1 

इज़रायल की आजादी में भारतीय वीरों की भूमिका - एक संक्षिप्त विवरण

22.23 सितंबर 1918 का हाइफ़ा का युद्ध . मानव इतिहास के सबसे बड़े युद्धों में से एक है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जोधपुर और मैसूर के महाराजाओं द्वारा भेजे गए भारतीय सैनिकों ने बड़ी संख्या में इज़रायल (पश्चिम एशिया) में अपने जीवन का बलिदान दिया । भारतीय वीरों ने तुर्कीए जर्मनी तथा ऑस्ट्रिया की संयुक्त सेनाओं को पराजित किया तथा सितंबर 1918 में हाइफा के इज़रायली बंदरगाह शहर को मुक्त करवाया । तब इज़रायल फिलिस्तीन के रूप में जाना जाता था, उस पर 1516 ईसवी के बाद से 402 वर्षों से तुर्की साम्राज्य का शासन था ।
इस युद्ध के बाद, भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के सैनिकों के साथ मिलकर पूरे इज़रायल को मुक्त करवाने के लिए कुछ और लड़ाइयाँ लड़ीं । 900 से अधिक साहसी भारतीय सैनिकों का इज़रायल में विभिन्न युद्धों में निधन हो गया । उनकी समाधियाँ संरक्षित हैं और इज़रायल की वर्तमान सरकार द्वारा उनकी सम्मान के प्रतीक के रूप में देखभाल की जाती है । हर साल 23 सितंबर को उनके नामों, बहादुरी और बलिदान को याद किया जाता है तथा वे स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में शामिल किए गए हैं। तुर्क, जर्मनी, आस्ट्रिया की संयुक्त सेनाओं पर भारतीय हमले का नेतृत्व करने वाले जोधपुर के मेजर दलपत सिंह शेखावत को हाइफा के नायक के रूप में जाना जाता है । हालाँकि युद्ध में उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन उनके सैनिकों ने अनुकरणीय साहस का प्रदर्शन किया और भारत की अनन्त प्रसिद्धि के लिए बहादुरी से लड़े ।
यह युद्ध कुछ उल्लेखनीय तथ्यों के कारण मानव इतिहास के सबसे बड़े युद्धों में से एक के रूप में याद किया जाता है । दुश्मनों में शामिल तुर्क, जर्मनी और ऑस्ट्रिया के सैनिक अपने क्षेत्र में पूरी तरह से सुरक्षित थे और तोप, बंदूकए राइफल सहित अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित थे । दूसरी ओर, जोधपुर और मैसूर के महाराजा द्वारा भेजे गए भारतीय सैनिक पैदल और घोड़ों पर सवार सैनिक थे । वे केवल तलवारों और भालों से सुसज्जित थे । यह शायद एकमात्र युद्ध है, जिसमें भाले और तलवारों से सज्जित सैनिकों ने अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित सेना को हरा दिया ।
इतिहास में यह अंतिम घटना है, जहाँ भाले व तलवारों से सज्जित घोड़े पर सवार व पैदल सैनिकों ने कोई प्रमुख लड़ाई लड़ी और जीती । इसलिए हाइफा का युद्ध मानव इतिहास के महान युद्धों में से एक है । यह भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है, जो हर भारतीय बालक व युवा को प्रेरित कर सकता है ।
हैदराबाद के निजाम ने भी घुड़सवार सेना की एक टुकड़ी ब्रिटिश सेना की सहायता के लिए भेजी थी । इसकी भूमिका युद्ध बंदियों की देखरेख की थी ।

प्रवासी यहूदियों का संक्षिप्त इतिहास

इज़रायल पश्चिम एशिया में एक प्राचीन देश है । यहाँ के लोगों को यहूदी कहा जाता है और उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषा हिब्रू है । ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी (740.722 ईसा पूर्व) में इज़रायल पर असीरिया ने हमला कर कब्जा कर लिया था और बेबीलोनिया ने ईसा पूर्व छठी शताब्दी (587 ईसा पूर्व) में एक बार फिर यहूदियों को यूरोप और अफ्रीका के कई भागों में 72वीं ईसवी में रोमन साम्राज्य द्वारा विस्थापित किया गया ।
यहूदी इतिहास में अधिकतर यहूदियों को गुलामी, नरसंहार, और अमानवीय यातनाओं, न्यायिक जांच, कैद, गैस चेंबर, बन्दी शिविरों के माध्यम से बड़े पैमाने पर कष्टों का सामना करते हुए निर्वासन के कारण डायस्पोरा में रहना पड़ा । वे नस्लीय और धार्मिक भेदभाव के शिकार भी थे । उनकी दुर्दशा और यातना की तुलना रोमा या सिंधी कहे जाने वाले 2 करोड़ भारतीयों से की जा सकती है । वे अरब हमलावरों द्वारा उत्तर पश्चिम भारत (मुख्य रूप से राजस्थानए पंजाब और सिंध) से पश्चिम एशिया के दासों (गुलाम) के बाजार में 712 ईसवी के बाद ले जाए गए थे, जहाँ से बच निकलकर वे यूरोप पहुँचे ।
जब भी यहूदियों,  इजरायल के लोगों को आक्रमणकारियों ने उनके देश से निष्कासित किया, उनमें से अनेक भारत में कोच्चि ;केरलद्ध और अलीबाग (महाराष्ट्र) में शरण ली। वे भारत में 2500 से अधिक वर्षों तक रहे और वर्ष 1948 में इज़रायल के गठन के पश्चात् अपने वतन लौटे। केवल भारत में ही यहूदी उन 2500 वर्षों तक गरिमा, सम्मान और गर्व तथा बिना किसी भेदभाव या डर के रहे । हिन्दू राजाओं ने उनके लिए यहूदी धार्मिक स्थानों (Synagogues) और आवासीय मकानों का निर्माण कराया। हिन्दुओं ने अक्सर अपनी जान को खतरे में डालकर 16वीं सदी के बाद से पुर्तगाली आक्रमणकारियों के उत्पीड़न और धर्मांतरण के प्रयासों और 18वीं सदी में टीपू सुल्तान की सेनाओं से यहूदियों की रक्षा की । उदारता, आतिथ्य और त्याग का जैसा व्यवहार यहूदियों को भारत में मिलाए वैसा अन्य प्रवासियों में से किसी को किसी भी अन्य देश में नहीं मिला ।

इज़रायल की तुर्की मुस्लिम साम्राज्य की अधीनता

विभिन्न विदेशी शासकों ने लगभग 2,000 वर्षों तक इज़रायल पर शासन किया । मध्यकाल में इज़रायल 1516 ईसवी के बाद से 400 वर्षों के लिए तुर्की मुस्लिम शासन के अधीन आ गया था । 2000 वर्ष की लंबी अवधि के दौरान यहूदी दुर्व्यवहार और अमानवीय यातनाओं के शिकार हुए । उन्हें यूरोप के विभिन्न हिस्सों में गुलाम के रूप में पहुँचाया गया । इसलिए उनकी प्रगाढ़ इच्छा अपनी जन्मभूमि को स्वतंत्र देखने और वहाँ बसकर गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत करने की थी ।

भारतीय सैनिकों द्वारा हाइफ़ा की मुक्ति का महत्त्व

अपनी जन्मभूमि के बाहर रहने वाले यहूदियों के लिए भारतीय सैनिकों द्वारा 23 सितंबर 1918 को तुर्की साम्राज्य से हाइफा की मुक्ति का अत्यधिक महत्त्व था ।
जब यहूदियों ने यूरोप तथा अन्य स्थानों पर हाइफा की मुक्ति के बारे में सुना तो वे खुशी से झूम उठे और 1919 से हाइफा में पहुँचना शुरू कर दिया । वे इज़रायल में आकर बस गए, हालाँकि पश्चिम एशिया में अभी भी प्रथम विश्व युद्ध जारी था । धीरे-धीरे यहूदियों की संख्या बढ़ती गई और अंततः वर्ष 1948 में उन्होंने आधुनिक इज़रायल राज्य की स्थापना की ।

भारतीय सैनिकों की वीरता का स्मरण

हर साल 23 सितंबर को सर्वोच्च बलिदान करने वाले वीर भारतीय सैनिकों को सम्मान देने के लिए हाइफा के महापौर और जनता इज़रायल में भारतीय दूतावास के लोगों के साथ इकट्ठा होते हैं । भारत में भी 23 सितंबर को हर साल सेना हाइफा दिवस मनाती है । भारत इज़रायल मैत्री फोरम (IIFF) और विश्व अध्ययन केन्द्र (VAK) वर्ष 2012 से दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, हांगकांग और भारत में 100 से अधिक स्थानों पर हाइफा दिवस मना रहा है । इसमें दिल्ली, अहमदाबाद और ठाणे के यहूदी मंदिरों में होने वाले हाइफा दिवस कार्यक्रम भी शामिल हैं । दिल्ली के तीन मूर्ति चौक और राजस्थान, कर्नाटक के कई स्कूलों में भी हाइफा दिवस कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं ।





हाइफा दिवस - २३ सितम्बर २०१३ 

पूर्व लेफिटनेंट जनरल जेकब दिल्ली में व्याख्यान 

तत्कालीन इजराइल के माननीय राजदूत भी बैठे हैं 

तत्कालीन इजराइल के मान्य राजदूत का सम्बोधन 

निमंत्रण पत्र 

राज्य सभा संसद श्री तरुण विजय जी बोलते हुए 

अध्याय . 2
भारत और इज़रायल के बीच सांस्कृतिक संबंध
भारत में यहूदियों का इतिहास

यहूदी, धर्म भारत में पहुँचने वाले विदेशी धर्मों में पहला है । यहूदी 72वीं ईसवी में असीरिया तथा बेबीलेनियन साम्राज्य के हमलों और उनके धार्मिक स्थलों को तोड़े जाने के बाद शरण लेने वालों के रूप में पहुँचे । दुनिया के अन्य देशों के विपरीत, यहूदियों को भारत में ऐतिहासिक रूप से स्थानीय बहुसंख्यक समुदाय हिन्दुओं के विरोध या भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा ।
".... दूसरे अधिकांश यहूदी उत्पीड़न, भेदभाव, हत्या और नरसंहार के विभिन्न प्रयासों के कारण इज़रायल आए थे, जबकि भारतीय यहूदी तीसरे राष्ट्रमंडल के निर्माण में भाग लेने की अपनी इच्छा की वजह से इज़रायल आए थे। भारत में लंबे समय तक रहने के दौरान किसी भी समय, कहीं पर भी वे असहिष्णुता, भेदभाव या उत्पीड़न के शिकार नहीं हुए थे ।"(इज़रायल के वाणिज्य दूतावासए 50 पेडर रोडए कम्बाला हिल, मुंबई(भारत) की ओर से Reuven Dafal द्वारा संपादित एवं प्रकाशित पुस्तक इज़रायल में भारतीय यहूदी के अंश )।

भारत में यहूदियों का योगदान

यहूदी समुदाय ने भारत के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । बैंक ऑफ इंडिया, मुंबई विश्वविद्यालय का पुस्तकालय, मुंबई ससून डॉक, गेटवे ऑफ इंडिया, रानी बाग चिड़ियाघर मुंबई, मुंबई का अल्बर्ट संग्रहालय, ससून हाई स्कूल, बधिरों के लिए स्कूल, पुणे में ससून अस्पताल आदि इनके योगदानों में से कुछ एक हैं । भारत के विभिन्न हिस्सों में यहूदियों द्वारा निर्मित धार्मिक स्थल वास्तुकलात्मक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध हैं ।
लेफ्टिनेंट जनरल जे.एफ.आर. जैकब. वाइस एडमिरल बेंजामिन सैमसन किलेकर,समाजसेवी डेविड ससून और उनके पुत्र सर अल्बर्ट ससून, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित मूर्तिकार पद्मभूषण अनीश कपूर, कवि और लेखक पद्मश्री निस्सीम ईज़किल, भरतनाट्यम् कलाकार और संस्कृत विद्वान पद्मश्री लीला सैमसन, साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता एस्थर डेविड और फिल्म कलाकारों में सुलोचना, नादिरा और डेविड इत्यादि ने अपने-अपने क्षेत्रों में उत्कृष्ट योगदान किया है ।

इज़रायल में भारतीय यहूदी

इज़रायल में वर्तमान में लगभग 80,000 भारतीय यहूदी हैं । वे वर्ष 1948 में आधुनिक इज़रायल राज्य की स्थापना के बाद इज़रायल चले गए । भारतीय यहूदी मुख्य रूप से अपनी धार्मिक मान्यताओं के कारण और अच्छे आर्थिक जीवन की उम्मीद में इज़रायल वापिस गए,  इसलिए नहीं कि भारत में उन्हें किसी प्रकार के भेदभाव का सामना करना पड़ रहा था ।

भारत से गए यहूदी महाराष्ट्र, कोच्चि, बगदादी और मिजोरम, इन चार वर्गों से संबंधित हैं। प्रारंभ में भारतीय यहूदियों को इज़रायल में यूरोपीय गोरे यहूदियों के नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ा । कुछ वापिस भारत भी भेज दिए गए । अन्य यहूदी तेलअवीव या जेरूसलम के बजाय आस पास के शहरों में बसाए गए । वहाँ आर्थिक और सामाजिक सहयोग का अभाव रहा । इज़रायल में उन्हें अल्प विकसित कस्बों और कृषि भूमि में बसने के लिए संघर्ष करना पड़ा । कोच्चि के यहूदियों को इज़रायल के रेगिस्तानों के कृषि क्षेत्रों में रखा गया । वे अपने कठिन परिश्रम के बल पर सफल और अमीर बने । महाराष्ट्र से गए (बेने इज़रायल) यहूदी काफी समय तक समाज में हाशिए पर थे । लेकिन भारत में ऐसा नहीं था, जहाँ समाज जीवन में उनका सम्मानपूर्ण स्थान था । निस्सीम ईज़किल  को पद्मश्री से सम्मानित किया गया और बेंजामिन सेमसन किलेकर (परम विशिष्ट सेवा मैडल) भारतीय नौसेना में वाइस एडमिरल के पद पर पहुँचे ।

दिमोना - इज़रायल में एक छोटा भारत

इज़रायल का दिमोना शहर 7,500 भारतीय यहूदियों का घर है । यह शहर इज़रायल के दक्षिणी जिला में मृत सागर के पश्चिम में करीब 35 किमी दूर निगेव रेगिस्तान में स्थित है। इसे मिनी इंडिया के नाम से भी जाना जाता है ।


दिमोना में बसे हुए भारतीय यहूदी रसायन संयंत्र, उच्च तकनीकी कंपनियों और कपड़े की दुकानों में काम करते हैं । महाराष्ट्रियन परिधान में महिलाएँ, दुकानों पर भारतीय मसालों, सब्जियों, वीडियो कैसेट्स, हिन्दी फिल्म पत्रिकाओं की बिक्री, और दुकानों पर सलवार.कमीज (सूट) पहने पुतले आज भी इस दिमोना शहर की गलियों में सामान्य दृश्य है ।


मराठी भाषा हर जगह सुनी जा सकती है और यहाँ तक कि सोन.पापड़ी, गुलाब जामुन, पापड़ी.चाट, व भेलपुरी आदि भारतीय व्यंजनों को बेचने वाली कई दुकानों के कारण युवा पीढ़ी भी इन शब्दों से परिचित है ।
युवा पीढ़ी को अपनी भारतीय विरासत से जोड़े रखने के प्रयास के रूप में समुदाय के प्रमुख लोगों ने दिमोना में केंद्रीय नगरपालिका पुस्तकालय में एक विशेष खंड बनाया है और यहाँ समुदाय के लोगों की भारत यात्रा के साथ पुस्तकों के रूप में योगदान से पुस्तक संख्या निरंतर बढ़ रही है । शहर के प्रवेश द्वार पर स्थित क्रिकेट मैदान में युवा नियमित रूप से क्रिकेट का प्रशिक्षण लेते दिखते हैं । दिमोना शहर में स्थित सांस्कृतिक केंद्र अक्सर हिन्दी फिल्मों पर आधारित नाटकों का आयोजन करता है ।



सांस्कृतिक संबंध

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक वरिष्ठ सदस्य श्री नारायण हरि पालकर की पुस्तक "कळा कडून बळा कडेष्" "गुलामी से शक्ति की ओर" को भारतीयों और यहूदियों दोनों द्वारा काफी सराहा व पढ़ा गया है । जब महाराष्ट्र से यहूदी लोग इज़रायल गए, तो उन्होंने अपने अस्थायी आवासीय क्षेत्र में एक सड़क का नामकरण पालकर के नाम पर किया था ।

आधुनिक समय में भारत इज़रायल संबंध

निःसंकोच कहा जा सकता है कि अधिकांश भारतीय इज़रायल की प्रशंसा करते हैं और भारत दुनिया में सबसे बड़ा इज़रायल समर्थक देश है । वर्ष 1999 में भारत-पाक कारगिल युद्ध के दौरान अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने युद्धक सामग्री से भारत का सहयोग नहीं करने का दबाव इज़रायल पर बनाया था । फिर भी इज़रायल ने युद्ध के दौरान भारत को तेजी से आवश्यक मोर्टार, गोला बारूद और लड़ाकू जेट विमानों के लिए लेज़र निर्देशित मिसाइलें प्रदान कर अपने आप को एक महत्त्वपूर्ण और विश्वसनीय सहयोगी साबित किया ।
आजए भारत इज़रायल का दूसरा सबसे बड़ा एशियाई आर्थिक भागीदार है ।



भारत इज़रायल के सैन्य उपकरणों का सबसे बड़ा ग्राहक भी है और रूस के बाद इज़रायल भारत का दूसरा सबसे बड़ा सैन्य भागीदार है । दोनों देशों के बीच सैन्य और सामरिक संबंधों को संयुक्त सैन्य प्रशिक्षण और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के साथ आगे बढ़ाया गया है। इज़रायल ने वर्ष 1998 में भारत के दूसरे परमाणु परीक्षण की निंदा नहीं की। वर्ष 1997 में इजरायल के राष्ट्रपति ईसर वाइज़मैन और वर्ष 2003 में प्रधानमंत्री एरियल शेरौन भारत आये । भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने इज़रायली समकक्ष बेंजामिन नेतन्याहू  से 2014 में न्यूयॉर्क में मुलाकात की ।


पर्यटन

40,000 से अधिक इजरायलीए अधिकांश युवाए अपनी सैन्य सेवाएँ समाप्त करने के पश्चात् प्रतिवर्ष भारत की यात्रा करते हैं । कई इजरायली हिमालय, पुरानी मनाली और धर्मशाला के आसपास के गाँवों की यात्रा करते हैं । कुल्लू घाटी में कई दुकानों, रेस्तरां और सार्वजनिक परिवहन वाहनों पर हिब्रू लिपि में बोर्ड देखे जा सकते हैं । इसी तरह भारत से इज़रायल की यात्रा पर जाने वाले पर्यटकों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है और आंकड़ा 20,000 की संख्या को पार कर चुका है ।

भारत इज़रायल मैत्री फोरम गतिविधियाँ

हाइफ़ा दिवस समारोह व अन्य सहभागिता

IIFF वर्ष 2012 के बाद से हाइफा दिवस मना रहा है । वर्ष 2015 में हाइफा दिवस दुनिया भर में सौ से अधिक स्थानों पर मनाया गया था । IIFF और सेवा इंटरनेशनल भारत की यात्रा पर आने वाले इज़रायली युवा स्वयंसेवकों से संपर्क में है । इन स्वयंसेवकों ने महाराष्ट्र में ग्रामीण भारतीय बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और खेल की बेहतरी की दिशा में योगदान दिया है ।

इज़रायल की यात्रा
अंतरराष्ट्रीय सामाजिक कार्यकर्ता और IIFF के संस्थापक श्री रवि कुमार ने जून 2013 में इज़रायल की यात्रा की । वे तेल.अवीव, जेरूसलम और हाइफ़ा के विश्वविद्यालयों में कई प्राध्यापकों और छात्रों से मिले । उन्होंने भारतीय सैनिकों की समाधियों और स्मारकों पर जाकर श्रद्धांजलि अर्पित की । वे कई भारतीय यहूदियों से भी मिले । IIFF के एक अन्य सदस्य श्री परेश पाठक ने दोनों देशों के बीच संबंधों को मजबूत बनाने के लिए कई अवसरों पर इज़रायल का दौरा किया । कई भारतीयों ने इजरायल के साथ संपर्क बढ़ाने में दिलचस्पी दिखाई है । IIFF ने प्रमुख भारतीयों की एक टीम को लेकर हाइफा दिवस के शताब्दी समारोह के अवसर पर वर्ष 2018 में इज़रायल का दौरा करने की योजना बनाई है ।




अध्याय . 3
इज़रायल की आजादी में भारत की भूमिका - विस्तृत कथा
22.23 सितंबर 1918 का हाइफा युद्ध . मानव इतिहास में सबसे बड़े युद्धों में से एक

हाइफ़ा इज़रायल का एक महत्त्वपूर्ण समुद्रतटीय शहर है । इज़रायल, यानि फिलिस्तीन  पर 1516 ईसवी से 400 साल तक तुर्की साम्राज्य का शासन था । प्रथम विश्व युद्ध (जुलाई 1914 से नवंबर 1918) के दौरान इज़रायल को आजाद करवाने के लिए जोधपुर के महाराजा, मैसूर के महाराजा तथा हैदराबाद के निजाम ने ब्रिटिश सेना की सहायता के लिए कई भारतीय सैनिकों को भेजा । 15वीं इम्पीरियल सर्विस के घुड़सवार सैनिक मैसूर और जोधपुर की रियासतों की रेजीमेंटों से बनाई गई एक विशेष इकाई (यूनिट) थी । उनमें से अनेक ने युद्ध के दौरान अपने जीवन का बलिदान दिया । हैदराबाद के निजाम द्वारा भेजी गई टुकड़ी को युद्ध बंदियों के प्रबंधन, देखरेख का कार्य दिया गया था ।
दुश्मन अपनी चौकी पर मजबूती से जमे थे और वे तोप, बंदूक सहित अत्याधुनिक हथियारों से लैस थे । भारतीय सैनिक केवल तलवारें और भाले लेकर पैदल व घोड़ों पर सवार होकर युद्ध लड़े । यह भारतीय वीरता ही है कि घोड़े पर सवार और पैदल सैनिक आधुनिक हथियारों से लैस दुश्मन को उसी के क्षेत्र में हरा सके । इसलिए हाइफा का युद्ध मानव इतिहास के सबसे महान युद्धों में से एक है । यह भारतीय इतिहास में एक सुनहरा अध्याय हैए जो भारतीय बच्चों और युवाओं को प्रेरित कर सकता है ।
15वीं इम्पीरियल सर्विस की घुड़सवार सेना की त्वरित कार्रवाई के बाद 23 सितंबर 1918 को हाइफ़ा के बंदरगाह शहर को मुक्त करवा लिया गया । यह दुनिया के इतिहास में घुड़सवार सेना का अंतिम महान अभियान था । भारतीय सैनिकों ने घुड़सवार सेना के सफल आक्रमण में अनुकरणीय कौशल और वीरता का प्रदर्शन किया । इस प्रकार इज़रायल से 402 से चला आ रहा उत्पीड़क तुर्की साम्राज्य समाप्त हो गया । यह सैन्य इतिहास में एकमात्र घटना हैए जब एक घुड़सवार सेना ने इतने कम समय में शहर पर कब्जा कर लिया ।

इज़रायलवाद और बेल्फोर घोषणा

पिछले 2,000 वर्षों से यहूदी समुदाय अपनी जन्मभूमि की ओर लौटने तथा अपने मंदिर के पुनर्निर्माण का सपना देख रहा था ।
19वीं शताब्दी के अंत से ही फिलिस्तीन में यहूदी राष्ट्रराज्य की स्थापना यहूदी समुदाय का लक्ष्य था । आस्ट्रिया, हंगरी में रहने वाले यहूदी पत्रकार Theodor Herzi ने 1896 में Der Judenstaat (यहूदियों का राज्य) प्रकाशित किया । उन्होंने जोर देकर कहा कि यूरोप में बढ़ते यहूदी विरोध सहित यहूदियों की सभी समस्याओं का एकमात्र समाधान यहूदियों के लिए एक पृथक राज्य की स्थापना के माध्यम से ही संभव था । एक साल बाद, Herzi यहूदी संगठन (Zionist Organisation, ZO) की स्थापना की । ZO ने अपनी पहली कांग्रेस (बैठक) मेंए फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए सार्वजनिक कानून के अधीन निम्न माध्यमों द्वारा सुरक्षित ठिकाना बनाने की माँग की:
- यहूदियों की बस्ती को प्रोत्साहन देकर
प्रवासी यहूदियों के संगठन के माध्यम से
यहूदियों की अनुभूति और चेतना को मजबूत करए और
आवश्यक सरकारी अनुदान प्राप्त करने के लिए जरूरी कदम उठाकर

बेल्फोर घोषणा . नवंबर 1917

1906 में एक प्रमुख ब्रिटिश यहूदी Caim Weizmann और ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर बेल्फोर के बीच पहली बैठक के दौरान बेल्फोर ने पूछा कि फिलिस्तीन के बजाय युगांडा को यहूदी राष्ट्र मानने में Weizmann की क्या आपत्ति है । Weizmann के संस्मरण के अनुसारए बातचीत का क्रम इस प्रकार चला -
"मि. बेल्फोर, कल्पना कीजिए कि मैं आपको लंदन के बजाय पेरिस की पेशकश करता हूँ, क्या आप इसे लेंगे?"  बैठे थे, मेरी तरफ देखा, और जवाब दिया . , लेकिन यरुशलेम हमारे पास था, जब लंदन एक दलदल था । उन्होंने दो बातें कहीं, जो अच्छी तरह याद हैं । पहली थी ." वहाँ  कितने यहूदी आपकी तरह सोच रखते हैं" मैंने जवाब दिया. मेरा  मानना है कि मैं उन लाखों यहूदियों के मन की बात कह रहा हूँ, जिन्हें आपने कभी देखा नहीं होगा और जो खुद के लिए बात नहीं कर सकते । इस पर उन्होंने कहा कि "अगर ऐसा है, तो आप एक दिन एक बड़ी शक्ति बनेंगे ।"
बाद में ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर बेल्फोर ने नवंबर 1917 की बेल्फोर घोषणा में कहा - "महामहिम की सरकार की राय फिलीस्तीन में यहूदियों के लिए राष्ट्र निर्माण के पक्ष में है, और इस लक्ष्य की सुविधापूर्वक प्राप्ति में अपने समस्त प्रयासों का उपयोग किया जाएगा .... ।"

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय सैनिक

भारतीय सेना प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यूरोप, अफ्रीका और एशिया में हर प्रमुख ऑपरेशन में लड़ी । राष्ट्रमंडल युद्ध कब्र आयोग के रिकार्ड के अनुसार 13,02,394 (13 लाख से अधिक) भारतीय सैनिक प्रथम विश्व युद्ध में लड़े । 31 दिसंबरए 1919 तक युद्ध में 1,21,598 भारतीय सैनिक हताहत हुए थे । 53,486 की मृत्यु, 64,350 घायल हुए और 3762 सैनिक लापता थे या बंदी बना लिए गए थे । द्वितीय विश्व युद्ध के अभियान में 36,000 भारतीय सैनिकों ने जान गंवाई, इनके अलावा 34,354 घायल हुए और 67,340 को युद्ध बंदी बना लिया गया था ।
प्रथम विश्व युद्घ के दौरान, लगभग 150,000 भारतीयों की टुकड़ी ने आधुनिक इज़रायल और मिस्र के भौगोलिक क्षेत्र में युद्ध में भाग लिया । उन्होंने फिलिस्तीन अभियान में प्रमुख भूमिका निभाई, जिसके परिमाणस्वरूप तुर्की साम्राज्य को हटना पड़ा । इज़रायल को आजाद कराने के लिए, भारतीय सैनिक ने कई स्थानों पर युद्ध लड़े।
जोधपुर और मैसूर के शाही सेवा के घुड़सवार सैनिक प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फिलिस्तीन अभियान में संयुक्त सेनाओं के एक भाग के रूप में युद्ध में लड़े । उन्होंने इज़रायल के समुद्रतटीय शहर हाइफा को मुक्त करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
इज़रायल को तुर्की साम्राज्य से मुक्त करवाने में 900 से अधिक भारतीय सैनिकों की मृत्यु हुई। तुर्की साम्राज्य का जर्मन और आस्ट्रियन सेनाएँ सक्रिय रूप से समर्थन कर रही थीं । इज़रायल के हाइफा, यरुशलेम, रामलेह, ख्यात के समुद्री तटों पर भारतीय वीर सैनिकों की समाधियों और युद्ध स्मारकों की अच्छी तरह से देखभाल की जाती है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भी इज़रायल की लड़ाई में कई भारतीय सैनिकों की मृत्यु हुई ।
1942 से भारतीय सेना के कमाँडर इन.चीफ फील्ड मार्शल सर क्लाउड ऑशलेक ने जोर देकर कहा कि ब्रिटेन दोनों युद्धों - प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव से बाहर नहीं आ सकता था, यदि उनके पास भारतीय सेना नहीं होती ।

हाइफा पर अधिकार का महत्त्व

हाइफ़ा इज़रायल का एक समुद्रतटीय शहर है । इजरायल पहले फिलिस्तीन के रूप में जाना जाता था। तुर्क साम्राज्य ने इस पर 1516 ईसवी (402 वर्षों तक) से अधिकार कर लिया था और अपनी सभी आपूर्तियों की आवाजाही के लिए बंदरगाह का उपयोग किया ।
अपने सैन्य बल को गतिमान रखने के लिए ब्रिटिश जनरल एलेनबी के लिए हाइफा को बंदरगाह और रेलवे स्टेशन सहित अपने अधीन करना महत्त्वपूर्ण था । इसके बिना उसे अपनी सेना के लिए आपूर्ति जारी रखना असंभव होता । इसलिए जनरल एलेनबी ने तय किया कि शहर पर बिना किसी देरी के कब्जा कर लेना चाहिए ।

21.22 सितंबर 1918 का युद्ध

हाइफ़ा की चौकी से 700 तुर्की सैनिकों के दल ने Tiberias को पाने के लिए प्रयास कियाए लेकिन वे 21-22 सितंबर 1918 की मध्य रात्रि 01:30 बजे 13वीं कैवेलरी ब्रिगेड की बाहरी चौकियों पर पहुँचे और ब्रिटिश सेना की 18वीं लांसर्स ने चांदनी (चंद्रमा की रोशनी) में हमला कर दिया । तुर्क सैनिक बड़ी संख्या में मारे गए और 311 तुर्क सैनिकों को 4 मशीनगनों के साथ पकड़ लिया गया ।
हाइफ़ा से गुप्त सूचना से संकेत मिल रहा था कि शहर खाली है । 22 सितम्बर को 13:30 बजे ब्रिगेडियर जनरल ए. डी.ए. किंग के नेतृत्व में हल्की बख्तरबंद गाड़ियों की एक टुकड़ी हाइफ़ा पर कब्जा करने के लिए नजरथ सड़क मार्ग से आगे बढ़ी । शहर में पहुँचने से पहले ही उन्होंने पाया कि सड़क मार्ग को बंद (barricade) कर दिया गया था । इस स्थान पर वे माउंट कार्मेल की ढलानों पर जमे तुर्क सैनिकों द्वारा घेर लिए गए और मशीनगनों के निशाने पर थे । मामूली नुकसान के साथ टुकड़ी को वापिस बुला लिया गया ।

भारतीय सैनिकों की प्रतिक्रिया

जोधपुर और मैसूर के महाराजा द्वारा भेजी गई घुड़सवार सेना की दोनों इकाइयाँ सैनिकों को वापिस बुलाए जाने से खुश नहीं थीं । घुड़सवार सेना के प्रमुख मेजर दलपत सिंह शेखावत को एक सपना आया, जिसमें देवी माता ने उन्हें सैनिकों के वापिस लौटने के कायरतापूर्ण कृत्य पर डाँटा । देवी माँ ने उन्हें याद करवाया कि भारतीय महाराजा और भारत के लोग सैनिकों के युद्ध भूमि से वापिस लौटने पर शर्मिंदा महसूस करेंगे । उन्होंने अपने साथी सैनिकों को स्वप्न सुनाया । वे भी सहमत थे कि वे सच्चे भारतीय सैनिक के रूप में युद्ध भूमि से पीछे हटने का कलंक लेकर भारत लौटने के बजाय युद्ध के मैदान में मरना पसंद करेंगे। उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों को इसके बारे में जानकारी दी । ब्रिटिश अधिकारियों ने समझाने का प्रयास किया कि शत्रु बहुत मजबूत है और अहम् स्थानों पर जमा है, लेकिन भारतीयों की सेना के दृढ़ संकल्प को देखकर उन्हें तुर्क सेना पर हमले की अनुमति दे दी ।

23 सितंबर 1918 को हाइफा का युद्ध : 1918 में इज़रायल की मुक्ति में भारतीय वीरता

जोधपुर और मैसूर के महाराजाओं द्वारा भेजे गए भारतीय घुड़सवार और केवल भालों व तलवारों से सज्जित सेना ने 23 सितंबर को 05:00 बजे हाइफा की ओर बढ़ना शुरू किया । उनका मार्ग माउंट कार्मल पर्वत श्रृंखला के साथ लगता हुआ था और किशोन नदी और इसकी सहायक नदियों के साथ लगती दलदली भूमि की एक पट्टी तक सीमित था । इससे घुड़सवार सेना को रणनीति बनाने के लिए कम गुंजाइश थी । जैसे ही 15वीं कैवलरी ब्रिगेड 10:15 बजे हाइफा पहुंची, वे माउंट कार्मल पर तैनात 77 एमएम बंदूकों के निशाने पर आ गए। जर्मनी व आस्ट्रिया के सहयोग से तुर्की सेना माउंट कार्मल पर तोपों के साथ हाइफा शहर में मजबूत थी ।
मैसूर लांसर्स की एक स्क्वाड्रन शेरवुड रेंजर्स के एक स्क्वाड्रन के समर्थन से दक्षिण की ओर से माउंट कार्मल पर चढ़ी । उन्होंने दुश्मनों पर अचानक आश्चर्यचकित कर देने वाला हमला कर कार्मल की ढलान पर दो नौसैनिक तोपों पर कब्जा कर लिया । उन्होंने दुश्मनों की मशीनगनों के खिलाफ भी वीरता के साथ आक्रमण किया ।
14:00 बजे  "बी" बैटरी एच.ए.सी. के समर्थन से जोधपुर लांसर्स ने हाइफा पर हमला किया । मजबूत प्रतिरोध के बावजूद भी लांसर्स ने दुश्मनों की मशीनगनों पर सामने से बहादुरी से आक्रमण किया ।
15:00 बजे तक भारतीय घुड़सवारों ने उनके स्थानों पर कब्जा कर तुर्की सेना को पराजित कर हाइफा पर अधिकार कर लिया ।
भारतीय सैनिकों की कार्रवाई को युद्ध के आधिकारिक इतिहास में दर्ज किया गया है - "मिस्र  और फिलिस्तीन में सैन्य अभियान (वॉल्यूम-2) - पूरे अभियान के दौरान घुड़सवार सेना की कार्रवाई के समान कोई अन्य युद्ध नहीं लड़ा गया था । मशीनगन की गोलियाँ भी बार.बार तेजी से आगे बढ़ रहे घोड़ों को रोकने में असफल रहीं, भले ही बाद में उनमें से कई अपने जख्मों के कारण मर गए । यह सैन्य इतिहास में एकमात्र ज्ञात घटना है, जब तेजी से आगे बढ़कर घुड़सवार सेना ने सुरक्षित शहर पर कब्जा कर लिया ।"

Marquess of Anglessey ने अपनी पुस्तक श्ब्रिटिश फौज का इतिहासश् में इस कार्रवाई पर यह विवरण दिया -
"शाम 03:00 बजे तक युद्ध समाप्त हो गया था और विजय प्राप्त हो गई थी । एक नया महत्त्वपूर्ण आपूर्ति केंद्र ब्रिटिश सेना के हाथ में आ गया था । चार दिन बाद ही यहाँ आपूर्ति शुरू हो गई । निस्संदेह पूरे अभियान के दौरान यह अपने स्तर की सफलतम कार्रवाई थी । यह केवल दो रेजीमेंट की 12 - पाउंडर बैटरी के साथ एक कमजोर ब्रिगेड द्वारा हथियारों से सुसज्जित लगभग 1000 की सेना के खिलाफ जीती गई थी । तुर्की सेना प्राकृतिक अजेय रक्षात्मक स्थानों पर और कुशलता से तैनात थी । वहाँ संकीर्ण रास्ते के एक तरफ अगम्य नदी और दूसरी तरफ खड़ी सीधी पहाड़ी थी। लेकिन दो भारतीय सेना रेजिमेंटों की गतिए साहस और वीरता के साथ ही वरिष्ठ विशेष सेवा अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल होल्डन की कुशल रणनीति के संयोजन ने कार्रवाई को सफल बना दिया । जोधपुर और मैसूर की अग्रणी स्क्वाड्रन द्वारा गति और अच्छी रणनीति का प्रदर्शनए जब उन्हें भारी गोलीबारी के बीच मार्ग बदलने के लिए मजबूर किया गया थाए भी अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व थे । यह निश्चित रूप से विश्व के इतिहास में एकमात्र अवसर थाए जब एक सुरक्षित शहर पर तेजी से बढ़ती घुड़सवार सेना द्वारा कब्जा कर लिया गया ।"

आमने-सामने की लड़ाई के पश्चात् 15:00 बजे शहर पर कब्जा कर लियाए 1352 कैदियों, 17 बंदूकों और 11 मशीनगनों  को कब्जे में कर लिया गया था । इसकी कीमत सैनिकों को अपनी जान गँवाकर चुकानी पड़ी । 31 अक्तूबर 1918 को जनरल एलेनबी ने अपनी डाक के मुख्य भाग में विशेष रूप से उल्लेख किया, "जब  मैसूर लांसर्स माउंट कार्मल की ढलानदार चट्टानों को पार कर रहे थे, जोधपुर लांसर्स धरती को रौंदते हुए, दुश्मनों की मशीनगन पर चढ़ाई करते हुए शहर में तेजी से आए, वहाँ रास्तों पर बहुत से तुर्कों पर भाले से प्रहार किया । कर्नल ठाकुर दलपत सिंह (मिलिट्री क्रॉस) ने वीरता के साथ आक्रमण का नेतृत्व किया ।" 


आधुनिक इज़रायल के इतिहास में हाइफा की मुक्ति का महत्त्व
2000 वर्षों से अधिक समय से जन्मभूमि से दूर रह रहे यहूदियों के लिए शक्तिशाली तुर्की साम्राज्य की पकड़ से भारतीय सैनिकों द्वारा हाइफा को मुक्त कराने का एक विशेष महत्त्व है ।
यूरोप और अन्य स्थानों पर यहूदियों ने बड़े आनंद के साथ उत्सव और समारोह के बीच समाचार का स्वागत किया । वे 1919 के बाद से काफी संख्या में हाइफा पहुँचने लगे । उन्होंने इज़रायल में बसना शुरू कर दियाए भले ही विश्व युद्ध जारी था । यहूदियों की संख्या बढ़ी और इसी ने अंततः 1948 में आधुनिक इज़रायल के निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त किया ।

हाइफा में बहाई पंथ और भारतीय लांसर्स के बीच संबंध
बहाई पंथ के संस्थापक के पुत्र और उनके उत्तराधिकारी अब्दुल-बहा 1918 में हाइफा के निवासी थे । सीरिया और फिलिस्तीन में तुर्की सेना के कमाँडर जमाल पाशा ने अब्दुल-बहा को क्रूस पर लटकाने और हाइफा व समीप के शहर में बहाई पंथ के पवित्र स्थलों को नष्ट करने की धमकी दी थी । भारतीय वीरों द्वारा हाइफा की मुक्ति के साथ ही अब्दुल-बहा के जीवन पर से भी खतरा टल गया था ।
भारतीय लांसर्स और अब्दुल-बहा के जीवन के मध्य संबंध के बारे में पहली बार फरवरी 2000 में पता चला, जब दिल्ली में बहाई पूजा घऱ के वास्तुकार फरीबुर्ज साहबा तत्कालीन केंद्रीय विदेश मंत्री जसवंत सिंह से मिले । जसवंत सिंह के पिताजी जोधपुर लांसर्स के सदस्य थे और जनरल एलेनबी के नेतृत्व में लड़े थे ।

हाइफा के नायक मेजर ठाकुर दलपत सिंह को श्रद्धांजलि
जोधपुर और मैसूर के भारतीय शाही सेवा के लांसर्स प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फिलिस्तीन अभियान में संयुक्त सेना के अंग के रूप में लड़े । हाइफा की मुक्ति में उनकी भूमिका सभी के लिए प्रेरणादायक हैए आने वाली पीढ़ियों के लिए भी ।

राजस्थान में रेत के टीलों की भूमि मारवाड़ हमेशा वीरों का उद्गम स्थल रही हैए जहाँ कई वीर राजपूत नायक पले । इस पालने में पला एक राजपूत सेनानायक था - स्वण् मेजर दलपत सिंह शेखावत, जिन्हें इतिहास में हाइफा के नायक के रूप में जाना जाता है ।
मेजर दलपत सिंह शेखावत का जन्म और पालन जोधपुर में हुआ था । उनके पिता कर्नल हरी सिंह शेखावत पोलो के प्रसिद्ध खिलाड़ी थे। उनकी देखरेख में ही दलपत सिंह बड़े हुए और सेना में अधिकारी बने । उन्होंने 1912 में किंग कमीशन प्राप्त किया । प्रथम विश्व युद्ध के समय हाइफा तुर्क सेना का गढ़ था । मेजर शेखावत को दुश्मनों से हाइफा को मुक्त करवाने का कार्य दिया गया था। युद्ध में अपने सैन्य कौशल, रणनीति और नेतृत्व का प्रदर्शन कर उन्होंने लक्ष्य में सफलता प्राप्त की और हाइफा को जीत लिया । हालाँकि, अपने कार्य को पूरा करते समय वह वीरगति को प्राप्त हुए । हाइफा की विजय मेजर दलपत सिंह की महान उपलब्धि थी, और ब्रिटिश सरकार ने उन्हें युद्ध भूमि में वीरता के लिए मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया ।
ब्रिटिश सेना के एक अधिकारी कर्नल हार्वे के शब्दों में - "उनकी मौत न केवल जोधपुरियों (लांसर्स) के लिए नुकसान है, बल्कि भारत और संपूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य के लिए भी नुकसान है । ब्रिटिश सरकार ने उनके बहादुरी भरे कार्य की अति प्रशंसा की और उन्हें हाइफा के नायक के रूप में सम्मान दिया ।
मारवाड़ की सरकार ने उनकी स्मृति में प्रताप स्कूल के परिसर में दलपत मेमोरियल हॉल का निर्माण करवाया । महाराजा उमेद सिंह ने उनकी चांदी की मूर्ति तैयार कराई, जो अब जयपुर में 61 कैवलरी के लिए गौरव का प्रतीक है ।
मेजर दलपत सिंह की वीरता को राजस्थान के साहित्य में चित्रित किया गया है । मारवाड़ के एक महान कविए श्री किशोर दान ने राजस्थानी भाषा में उनकी स्मृति में वीर विलास और दलपत रासो नाम से अनेक कविताएँ लिखी हैं ।
ब्रिटिश सरकार ने मेजर दलपत सिंह के सर्वोच्च बलिदान की सराहना की । 1922 में उनके साथ ही प्रथम विश्व युद्ध के दो अन्य युद्ध वीरों की मूर्तियों को लंदन के वास्तुकार लियोनार्ड जेनिंग्स द्वारा बनाया गया। दिल्ली में ये मूर्तियाँ एक दूसरे के समान पत्थर के स्तंभ पर रखीं गई हैं। इस स्थान को तीन मूर्ति चौक कहा जाता है ।

भारत.इज़रायल मैत्री फोरम (IIFF) की माँग है कि इस चौक का नाम बदलकर तीन मूर्ति हाइफ़ा चौक किया जाए ।
मेजर दलपत सिंह शेखावत की 83वीं पुण्यतिथि उनके पैतृक स्थान जोधपुर में मनाई गई थी । इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में भारतीय सेना के वरिष्ठ अधिकारियों और नागरिक प्रशासन के प्रतिनिधियों ने हाइफा के नायक के सर्वोच्च बलिदान का स्मरण किया ।

हाइफ़ा युद्ध के अन्य वीर
कैप्टन अनूप सिंह और सेकंड लेफ्टिनेंट सगत सिंह को भी मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया गया था । कैप्टन बहादुर अमन सिंह जोधा और दफादार जोर सिंह को युद्ध में उनकी वीरता के लिए इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट (आईओएम) से सम्मानित किया गया । उस समय मिलिट्री क्रॉस ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय सैनिकों को दिया जाने वाला सर्वोच्च वीरता सम्मान था। वर्तमान में भारत के राष्ट्रपति द्वारा दिए जाने वाले परमवीर चक्र के समकक्ष यह सम्मान है ।
लेफ्टिनेंट जनरल सर प्रताप सिंह नजरथ की 70 मील की दिन रात की यात्रा के दौरान अपनी जोधपुर लांसर्स के साथ थे । वे लगभग 73 वर्ष की आयु के वफादार योद्धा थे और उन्हें बुखार भी था। एलेनबी ने उन्हें कुछ दिनों के लिए आराम करने का आदेश दिया, अन्यथा कोई संदेह नहीं कि वे हाइफा पर कार्रवाई के दौरान शामिल हो गए होते ।" इसका वर्णन 20वीं मशीनगन स्कवाड्रन के साथ फिलिस्तीन के माध्यम से" नामक पुस्तक के गुमनाम लेखक द्वारा किया गया है ।
कप्तान बीर सिंह राठौर-(जैसा उनके पौत्र ने बताया) - वे आईएएस मूल सिंह जी के सबसे बड़े भाई थे । उनका 7 फीट की ऊँचाई वाला आकर्षक व्यक्तित्व था । वे जोधपुर लांसर्स ;जोधपुर सरदार रिसालाद्ध में कैप्टन थे । वे प्रथम विश्व युद्ध के दौरान कई प्रसिद्ध लड़ाइयों में लड़े । वे 1918 के प्रसिद्ध हाइफा युद्ध के प्रमुख योद्धाओं में से एक थे । उनकी बहादुरी और मशीनगन पर पूर्ण नियंत्रण ने हाइफा युद्ध की जीत में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । वह बहादुरी से लड़े और कई दुश्मन सैनिकों को मारा । उन्हें इस युद्ध के लिए सम्मानित किया गया । यह जीत इतनी प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण है कि हाइफा युद्ध दिवस भारतीय सेना के 61वीं कैवलरी मुख्यालय जयपुर में हर साल गौरव के साथ मनाया जाता है ।
ऐसे ही एक समारोह के दौरान भारतीय सेना के प्रमुख विशिष्ट अतिथि थे । यह जानने के बाद कि हाइफा युद्ध के प्रसिद्ध योद्धा कैप्टन बीर सिंह अभी जीवित हैं, उन्होंने बीर सिंह को समारोह में आमंत्रित किया तथा और उन्हें पूरा सैनिक सम्मान व सलामी दी। कैप्टन बीर सिंह ने हाइफा पर एक भाषण दिया, जिसे ऑल इंडिया रेडियो और बीबीसी लंदन ने प्रसारित किया था । उन्हें भारत के राष्ट्रपति ने भी सम्मानित किया था ।
अफगानिस्तान में हुई एक अन्य लड़ाई में कैप्टन बीर सिंह जी एक तोपखाना इकाई का नेतृत्व कर रहे थे । उन्होंने दुश्मनों को हराया, प्रमुख चौकियों पर कब्जा किया तथा दुश्मनों को भागने पर मजबूर कर दिया । उनकी सैन्य टुकड़ी जीत का जश्न नाच-गाकर मनाने लगी । कैप्टन बीर सिंह जी पूर्ण शाकाहारी और नशा न करने की आदत के कारण समीप की एक पहाड़ी पर अकेले ही चले गए । पीछे हटती दुश्मन सेना को भारतीय सेना के जश्न मनाने की भनक लगी । इसलिए, वे अतिरिक्त सैन्य शक्ति के साथ उस महत्त्वपूर्ण चौकी पर पुनः कब्जा करने के लिए वापस लौटे । कैप्टन बीर सिंह जी ने झाड़ियों में दुश्मन सेना की हलचल को देख लिया । उन्होंने अपने सैनिकों को पुकारा, लेकिन सैनिक उन्हें सुन नहीं सके । इसलिए कैप्टन बीर सिंह ने अपने सिर से अपनी पगड़ी उतारी, उसमें एक पत्थर बांधा और उसे अपने सिर के ऊपर घुमाना शुरू कर दिया । कुछ सैन्य साथियों ने उनकी इस असामान्य हरकत को देखा व सतर्क हो गए । उन्होंने तत्परता के साथ अपनी बंदूकें लड़ाई के लिए तैनात कर लीं । कैप्टन बीर सिंह जी भी उनके साथ शामिल हो गए । दुश्मन इस तैयारी के प्रति पूरी तरह से अनभिज्ञ थाए जिस कारण उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा । कैप्टन बीर सिंह जी की सतर्कता से भारतीयों ने एक बड़ी लड़ाई जीती । उन्हें इस लड़ाई के लिए सम्मानित किया गया । भारतीय सेना ने कैप्टन बीर सिंह जी के निधन पर पूर्ण सैनिक सम्मान दिया ।

भारतीय गणतंत्र की 61वीं कैवलरी रेजिमेंट
भारत और भारतीय सेना इस महान युद्ध के अपने नायकों को नहीं भूले । हाइफा को मुक्त करवाने वाली जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद की रियासतों से संबंधित तीनों कैवलरी को मिलाकर भारतीय गणतंत्र में 61वीं कैवलरी रेजिमेंट के रूप में गठन किया गया । यह कैवलरी रेजिमेंट 23 सितंबर को हर साल हाइफा दिवस मनाती है ।

इजरायल की पाठ्यपुस्तकों में भारतीय सैनिकों की सराहना
अपने ही देश में अनजाने बने रहे कुछ भारतीय सैनिकों के नाम पर उत्तरी इज़रायल में हाइफा में घरों के नाम रखे जाते हैं । 1918 में इस शहर को मुक्त करवाने में उनके योगदान को इज़रायल के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया गया है । हाइफा नगर पालिका ने भारतीय सैनिकों के बलिदान को अमर करने में कुछ कदम उठाये हैं। भारतीय सैनिकों की वीरता और साहस की कहानियों को इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया गया है। हाइफा के उप महापौर Hedva Almong ने भारतीय शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्रित लोगों को बताया कि हाइफा नगर पालिका का यह कदम शहर के इतिहास और विरासत को संरक्षित रखने के प्रयासों का एक हिस्सा है ।
हाइफा ऐतिहासिक संस्था (हाइफा हिस्टोरिकल सोसायटी) ने भारतीय सेना की भूमिका पर गहन शोध किया है । इसके निष्कर्षों के अनुसार - "प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में भारतीय सैनिकों ने अपने जीवन का बलिदान दिया। इज़रायल भर में कब्रिस्तानों में करीब 900 भारतीयों का अंतिम संस्कार किया गया है।"
अन्य श्रद्धांजलियाँ

अक्तूबर 2009 में नौसेना प्रमुख एडमिरल निर्मल वर्मा ने शहीद भारतीय सैनिकों के स्मारक की यात्रा की और पुष्प अर्पित कर श्रद्धांजलि दी । वे समा
रोह में अपने इज़रायली समकक्ष Eliezer Marom के साथ शामिल हुए थे ।
23 सितंबर 2010 को भारतीय सेना के कर्नल एमएस जोधा इज़रायल में हाइफा विशेष युद्ध स्मारक पर पुष्पांजलि अर्पित करने के लिए गए, जो उनके पितामह (दादा) कैप्टन बहादुर अमन सिंह जोधा, उनकी रेजिमेंट और अन्य सह-रेजिमेंट के सम्मान में बना है।
अगस्त 2012 में भारतीय नौसेना के चार जहाजों के दल ने हाइफा बंदरगाह की सद्भावना यात्रा की । यात्रा के दौरान बेड़े के कमांडर ने हाइफा में स्मारक पर भारतीय सैनिकों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की ।
विश्व अध्ययन केंद्र मुंबई ने 23 सितंबर 2012 को ठाणे में यहूदियों के धार्मिक स्थल (Synagogue) में हिन्दू यहूदी संयुक्त वार्ता सत्र आयोजित कर हाइफा दिवस मनाया ।
इज़रायल के निवासी भी सप्ताह भर चलने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला के बीच इसी दिन हाइफा दिवस मनाते हैं ।
भारतीय दूतावास, तेल-अवीव, इज़रायल ने "इज़रायल में भारतीय सैनिकों के स्मारक" नाम से एक पुस्तक प्रकाशित की है । इज़रायल में भारत के राजदूत नवतेज सरना ने इसकी प्रस्तावना लिखी है । पुस्तक में हाइफा युद्ध विस्तार से वर्णित है ।
इज़रायल में भारतीय दूतावास ने हाइफा में 01 अक्तूबर 2013 को भारत स्मृति दिवस मनाया । ठाणे, दिल्ली, जोधपुर, जयपुर, डर्बन, न्यूयॉर्क, सिडनी, इज़रायल (हाइफा,यरुशलेम, रामलेह, और तेल-अवीव) में भी 23 सितंबर 2013 को हाइफा दिवस मनाया गया ।


अध्याय - 4
2018 में हाइफा दिवस शताब्दी समारोह
वर्ष 2018 हाइफा की मुक्ति का शताब्दी वर्ष होगा, जिसने आधुनिक इज़रायल की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया ।
हाइफा के उप महापौर Hedva Almog ने सितंबर 2012 में हाइफा दिवस समारोह के अवसर पर कहा कि नगर पालिका वर्ष 2018 में बड़े स्तर पर शताब्दी समारोह मनाने की योजना बना रही है । उन्होंने आयोजन को सफल बनाने के लिए भारत से भी सहयोग का आग्रह किया । तेल-अवीव में भारतीय मिशन में Charge de Affairs श्रीमती वाणी राव ने अनुरोध पर सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की ।
1948 में इज़रायल की स्वतंत्रता के पश्चात् भारत से 80,000 यहूदी इज़रायल चले गए। वे आज इंजीनियर, प्रोफेशनल, कृषक आदि के रूप में सभी क्षेत्रों में बहुत सफल हैं। उनमें से काफी अभी भी मराठी, मलयालम और गुजराती आदि भारतीय भाषाएँ बोलते हैं । वे अपनी भारतीय विरासत को महत्त्वपूर्ण मानते हैं । वे गर्व से कहते हैं - इज़रायल हमारी जन्मभूमि है और भारत हमारी मातृभूमि है । इज़रायल हमारे रक्त में है, लेकिन भारत हमारे दिल में है ।
इज़रायल, यूएस, और विश्व में अन्य स्थानों पर मौजूद भारतीय यहूदी भारत इज़रायल मैत्री फोरम (आईआईएफएफ), विश्व अध्ययन केंद्र मुंबई, अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक अध्ययन केंद्र (आईसीसीएस) यूएसए के सहयोग से हाइफा दिवस के शताब्दी समारोह को भव्य तरीके से मनाने की योजना बना रहे हैं । केंद्रीय मंत्री जनरल वीके सिंह सहित कई प्रमुख हस्तियों ने इस ऐतिहासिक कार्यक्रम में भाग लेने को लेकर गहरी रुचि दिखाई है ।

अध्याय -5
भारतीय सैनिकों द्वारा हाइफा की मुक्ति पर इज़रायल के राजदूत Alon Ushpiz का भाषण
नई दिल्लीए भारत में 23 सितंबर 2013 को यहूदी धार्मिक स्थल (Judah Hyam Synagogue) में हाइफा दिवस समारोह पर इज़रायल के राजदूत ।सवद Ushpiz का भाषण .
एचआरडीआई के महासचिव श्री राजेश गोगना, श्री जसवंत सिंह, जनरल जैकब
देवियों और सज्जनों, प्रिय अतिथियो
एक दूसरे से हजारों मील दूर स्थित दो स्थानों को एक अदृश्य संबंध जोड़ता है । एक शहर वह जिसमें मैं जन्मा, इज़रायल के उत्तरी हिस्से में स्थित हाइफा शहर। दूसरा वह, जहाँ आज हम एकत्रित हुए हैं, यहाँ से कुछ ही मिनटों की दूरी पर स्थित तीन मूर्ति स्मारक (मेमोरियल), तीन मूर्ति भवन के ठीक बाहर ।
95 वर्ष पहले इसी दिन हाइफा शहर और बाद में मध्य पूर्व क्षेत्र को तुर्की साम्राज्य से मुक्त करवाने वाले वीर सैनिकों की पूरी कहानी काफी लोगों को पता नहीं है ।
हाइफा (इज़रायल) के समुद्री तट के नजदीक ही शहर में स्थित जफा स्ट्रीट के साथए शहर को 400 साल के तुर्की साम्राज्य से मुक्त करवाने के लिए बहादुरी से लड़ने वाले सैनिकों के स्मारक हैं, जहाँ आजकल आप खेल रहे बच्चों की आवाज सुन सकते हैं । हाइफा भारतीय कब्रिस्तान और हाइफा युद्ध कब्रिस्तान (Haifa Indian Cemetery and Haifa War Cemetery) प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की साम्राज्य के खिलाफ और विशेषकर हाइफा के युद्ध में बलिदान देने वाले भारतीय, ब्रिटिश, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के 354 सैनिकों सहित 47 भारतीय वीरों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।
मैसूर और जोधपुर लांसर्स की वीरता, दृढ़ता और घुड़सवारी कौशल ने 23 सितंबर 1918 को तुर्कों से शहर का नियंत्रण छीन लिया, जो तुर्क साम्राज्य की सेना पर जीत में निर्णायक साबित हुआ । हाइफा के ऐतिहासिक युद्ध ने ब्रिटिश सेना की जीत तथा 30 साल बाद इज़रायल राज्य के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया ।
इज़रायल में यरुशलेम से रामलेह व हाइफा के सात स्थानों पर 900 के करीब भारतीय सैनिकों का अंतिम संस्कार किया गया है, उन्होंने अदम्य बलिदान का प्रदर्शन किया थाए ये स्मारक उनकी वीरता को अमर बनाते हैं ।
देवियो और सज्जनोंए तीन मूर्ति स्मारक और हाइफा के कब्रिस्तान के बीच संबंध का रास्ता सम्मान से आगे जाता है, जिन्होंने हमारा जीवन सुनिश्चित करने के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया । यह राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने से हजारों साल पहले अस्तित्व में आए दो स्वतंत्र राष्ट्रों के बीच मित्रता की भी अभिव्यक्ति है, जो वास्तव में हमारे खुले तथा मुक्त समाज में समान मूल्यों के खजाने को संजोए हुए है ।
यह महान युद्ध भारत और इज़रायल की स्वतंत्रता से तीन दशक पहले हुआ था । फिर भी, दोनों देशों के लोगों के मध्य पहले से मजबूत रिश्ता था । देवियो और सज्जनो, यह वह रिश्ता था जो भारत में रह रहे यहूदी समुदाय के संपन्न और सक्रिय जीवन में भी दिखता था, हम सौभाग्यशाली हैं कि उस समुदाय का बेटा और नेता जनरल जैकब आज हमारे साथ है ।
भूमध्य सागर के नीले पानी में मिलती माउंट कार्मल की हरी ढलानों पर स्थित हाइफा भारत के साथ कई समानताएँ रखता है । यह कई मत और पंथों को मानने वाले लोगों का घर हैए जो एक साथ रह रहे हैं । हाइफा इज़रायल के विविध संस्कृति वाले शहरों में से एक है, यह यहूदी, क्रिश्चियन, मुस्लिम, ड्रूज़ और बहाई समुदायों का घर है, विभिन्न भाषा, संस्कृति, खान.पान और पंथों का मिश्रण है ।
इज़रायली सलाद का यह कटोरा भारतीय थाली के समान है, यह हमारे सम्बन्धों को विशेष और मजबूत बनाता है ।
ब्रिटिश सेना के शहीद सैनिकों के लिए बने कब्रिस्तान में क्रिश्चियनए हिन्दू, सिक्ख, मुस्लिम और यहूदी सैनिकों की कब्र को कोई भी देख सकता है । समान नियति साझा करने की भावना और विभिन्न पृष्ठभूमि वाले लोगों में मित्रता, साथ ही साथ उनकी बहादुरी, हाइफा के निवासियों और आज के सभी इज़रायल वासियों के लिए एक विरासत छोड़कर गए हैं ।
कुछ समय पहले, हाइफा नगर पालिका ने शहर को मुक्त करवाने के लिए वीर भारतीय सैनिकों के प्रयासों की कहानियों को स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल करने का निर्णय लिया । इसलिए, इसे संरक्षित करना, लेकिन उससे भी अधिक अपने बेटे औऱ बेटियों को इस विरासत और अपने जीवन का बलिदान करने वालों की स्मृति से परिचित करवाना, हमारा कर्तव्य है ।
अगले सप्ताह, हम इज़रायल में भारतीय लोकसभा के सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल की मेजबानी करेंगे । वे भारतीय राजदूत जयदीप सरकार के साथ हाइफा में भारतीय कब्रिस्तान में शहीद भारतीय सैनिकों के श्रद्धांजलि समारोह में तीसरी बार भाग लेंगे ।
प्यारे दोस्तों, मैं इज़रायल के राजदूत और हाइफा शहर के गर्वित बेटे के रूप में आभारी हूँ कि आपने आज मुझे मेरे गृहनगर को मुक्त करवाने वालों को स्मरण करने तथा इस कार्य को पूरा करने में अपना बलिदान देने वालों को सम्मान देने का अवसर प्रदान किया । हाइफा दिवस हमारे लिए बहादुर सैनिकों को स्मरण करने और सम्मान देने का दिन है ।
उनकी आत्मा को शांति प्राप्त हो ।
हाइफा दिवस नई दिल्ली - २३ सितम्बर २०१३ 
जनरल जेकब का व्याख्यान 


इस्रायल के मा राजदूत का संदेश 



श्री तरुण विजय जी कार्यक्रम में बोलते हुए 

निमंत्रण पत्र 


मुंबई निमंत्रण पत्र 

जोधपुर कार्यक्रम 

जोधपुर कार्यक्रम रिपोर्ट 

जोधपुर कार्यक्रम में  सहभागी 

अध्याय . 6
दूसरे देशों के निर्माण में भारतीय वीरों का बलिदान
भारतीय सैनिक इज़रायल, बांग्लादेश, सिंगापुर, मलेशिया, और बर्मा की मुक्ति और स्वतंत्रता के लिए लड़े तथा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और वीरगति को प्राप्त हुए। लेकिन उनकी वीरता और बलिदान के दस्तावेज सही रूप में उपलब्ध नहीं है। इन देशों में कोई स्मारक भी नहीं बनाया गया है, न ही भारत और इन देशों में बलिदान की कहानी को स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। उन देशों में कम से कम कुछ सड़कों के नाम उनके नाम पर रखे जाने चाहिए।

1942 -1945रू सिंगापुर, मलेशिया और बर्मा की स्वतंत्रता
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय राष्ट्रवादियों ने 1942 में दक्षिण पूर्व एशिया में आजाद हिन्द फौज का गठन किया था। आजाद हिन्द फौज में मलाया और सिंगापुर अभियान के दौरान जापान द्वारा पकड़े गए भारतीय युद्ध बंदी (सैनिक) शामिल थे। इसमें सिंगापुर, मलाया और बर्मा में रहने वाले प्रवासी भारतीयों में से भी स्वेच्छा से लोग शामिल थे। 1945 में आजाद हिन्द फौज के पास इन देशों के 18,000 भारतीय नागरिकों सहित 40,000 सैनिक थे। जापानी शासन के तहत थाईलैंड से बर्मा के मध्य रेल ट्रेक बिछाने के दौरान 'Death Rail' में हजारों भारतीयों की मृत्यु हो गई।
         
       
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने औपचारिक रूप से अक्टूबर 1943 में स्वतंत्र भारत की अतंरिम सरकार की स्थापना की घोषणा की। वे सरकार के प्रधानमंत्री, युद्ध एवं विदेश मंत्री थे। कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी स्वामीनाथन (शादी के बाद लक्ष्मी सहगल) महिला संगठन की प्रभारी मंत्री थीं। वे आजाद हिन्द फौज में लड़ने वाली महिलाओं की सैन्य टुकड़ी रानी झांसी रेजिमेंट की भी प्रमुख थीं।
आजाद हिन्द फौज शाही जापानी सेना के साथ मिलकर बर्मा, इंफाल, और कोहिमा के अभियान में ब्रिटिश और राष्ट्रमंडल सेनाओं के खिलाफ लड़ी। आजाद हिन्द फौज ने सिंगापुर, मलेशिया, बर्मा और भारत के लोगों में देशभक्ति और स्वतंत्रता के प्रति उत्साह को जगाया, और इन देशों में स्वतंत्रता के मार्ग को प्रशस्त किया। ब्रिटिश शासन की सेना के खिलाफ आजाद हिन्द फौज की लड़ाई में कई भारतीयों और प्रवासी भारतीयों की मृत्यु हुई।
आजाद हिन्द फौज (इंडियन नेशनल आर्मी) के कर्नल शौकत मलिक ने 14 अप्रैलए 1944 को मणिपुर के Moirang में मणिपुरी Shri Mairembam Koireng Singh और अन्य लोगों की सहायता से भारत की धरती पर पहली बार तिरंगा फहराया।
(Koireng Singh ने अपने पिता के अन्न भंडार से खाद्यान्न की व्यवस्था की। स्वतंत्रता युद्ध के दौरान Koireng तथा उनके सहयोगियों ने आजाद हिन्द फौज के हजारों सैनिकों को तीन माह तक भोजन करवाया था। Koireng मणिपुर के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री थे। वह तीन बार मणिपुर के मुख्यमंत्री के रूप में चुने गए।)



Moirang आईएनए संग्रहालय में कुछ युद्धकालीन अवशेषों और तस्वीरों को प्रदर्शित किया है। आजाद हिन्द फौज ने फरवरी 1944 से अक्तूबर 1945 तक अंदमान और निकोबार द्वीप पर भी शासन किया।
सिंगापुर के नेशनल हेरिटेज बोर्ड ने वर्ष 1995 में एस्प्लानाड पार्क में आजाद हिन्द फौज स्मारक का निर्माण किया। सिंगापुर में भारतीय समुदाय ने इसमें वित्तीय सहयोग प्रदान किया। सिंगापुर में यह स्मारक अब आधिकारिक रूप से ऐतिहासिक स्थानों में शामिल है।

1971 में बांग्लादेश की मुक्ति
1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध - यह इतिहास में सबसे कम समय के युद्धों में से एक (महज 13 दिन) में समाप्त होने वाला युद्ध था। यह बांग्लादेश की मुक्ति और एक नए देश के गठन तथा 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों को बंदी बनाने के साथ ही सबसे निर्णायक जीत थी।

   
 "भारत ने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान के खिलाफ शानदार जीत हासिल की। यह सदी के प्रमुख युद्धों में पहली निर्णायक जीत थी और यह विश्व के शक्तिशाली देश सहित संयुक्त राष्ट्र के अधिकांश सदस्य देशों के विरोध तथा धमकियों के बावजूद अपने दम पर हासिल की गई जीत थी। प्रत्येक भारतीय देशभक्त इतिहास की इस शानदार उपलब्धि पर गर्व महसूस करता है।"
-1971 के युद्ध के भारत सरकार के 'प्रतिबंधित' आधिकारिक इतिहास की प्रस्तावना में डॉ. एस एन प्रसाद....
पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) को पश्चिमी पाकिस्तान के हमले से बचाने के लिए लगभग 8,000 भारतीय सैनिकों ने अपने जीवन की आहुति दी।
बांग्लादेश मुक्ति संग्राम को बंगाली भाषा में Muktijudhho,  बांग्लादेश के स्वतंत्रता युद्ध के रूप में भी जाना जाता है।
पश्चिमी पाकिस्तान में स्थित पाकिस्तानी सैन्य शासकों ने मार्च 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के खिलाफ ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया। इसके तहत राष्ट्रवादी बंगाली नागरिकों, छात्रोंए बुद्धिजीवियों, बंगाली हिन्दुओं और बौद्धों तथा सेना कर्मियों को योजनाबद्ध ढंग से देश से बाहर निकालने की नीति अपनाई। पाकिस्तानी सेना के सदस्य और रजाकार, अल.बदर, और अल.शम्स जैसे समर्थक लड़ाके नरसंहार, निर्वासन तथा सामूहिक बलात्कार में लगे थे। बांग्लादेश सरकार के आंकड़ों से पता चलता है कि सहयोगियों द्वारा सहायता प्राप्त पाकिस्तानी सेना द्वारा तीस लाख बंगाली लोग मारे गए, 2 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ तथा लाखों अन्य विस्थापित किए गए।
एक अनुमान के अनुसार पूर्वी पाकिस्तान से एक करोड़ बंगाली शरणार्थी भारत चले गए। लाखों बंगाली शरणार्थियों की देखभाल तथा अन्य खर्चों का आर्थिक बोझ उठाने के लिए भारत की जनता पर कर (टैक्स) लगाए गए।
भारत 03 दिसंबरए 1971 को पाकिस्तान द्वारा उत्तरी भारत पर हवाई हमलों की शुरूआत के बाद युद्ध में शामिल हुआ। संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप और चीन ने पाकिस्तान का समर्थन किया। अमेरिका ने पाकिस्तान को पेटन टैंक, सब्रे जेट्स, एक आधुनिक पनडुब्बी USS Diabio (SS-479) और हवाई अड्डों के लिए निगरानी प्रणाली देकर सहयोग किया। भारत सरकार को भयभीत करने के लिए बंगाल की खाड़ी में आधुनिक विमान वाहक पोत USS Enterprise (Seventh Fleet) को भेजना अमेरिकी निराशा की पराकाष्ठा थी।
(USS Enterprise को रोकने के लिए भारत ने बड़ी चतुराई से आईएऩएस विक्रांत और अंडमान एवं निकोबार द्वीप पर स्थित भारतीय एयरबेस का उपयोग किया। भारतीय नौ सेना ने PNS Gazi के रूप भी जानी जाने वाली आधुनिक पनडुब्बी USS Diablo (SS-479) को विशाखापत्तनम बंदरगाह के पास डुबो दिया। इसने अमेरिकियों को हिन्द महासागर से दूर जाने के लिए मजबूर किया और एक बड़ा टकराव टल गया।)
बाद का भारत-पाकिस्तान युद्ध पूर्व और पश्चिम के दो युद्ध मोर्चों का गवाह बना। पूर्वी क्षेत्र में भारतीय वायु सेना के वर्चस्व और अग्रिम मोर्चे पर भारत तथा बांग्लादेश की संयुक्त सेना की तेजी के सामने पाकिस्तान ने 16 दिसंबरए 1971 को आत्मसमर्पण कर दिया। भारतीय सेना ने जनरल नियाजी के नेतृत्वाधीन पाकिस्तानी सेना के 81 हजार वर्दीधारी सैनिकों सहित कुल 93 हजार पाकिस्तानियों को युद्धबंदी बनाया।
युद्ध के बाद विश्व में सातवें सबसे अधिक आबादी वाले देश के रूप में बांग्लादेश के गठन ने दक्षिण एशिया में भू-राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। जटिल क्षेत्रीय गठबंधनों के कारण यह युद्ध संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और चीनी गणतंत्र के मध्य शीत युद्ध का एक प्रमुख कारक था।

निष्कर्ष .

संपूर्ण विश्व शांति की तलाश में है। शांति केवल अध्यात्म के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती है। शांति और अध्यात्म का संदेश केवल वेदए उपनिषद्, रामायणए गीता औऱ संतों की वाणी में विद्यमान है।

शांति के इस शाश्वत संदेश को विश्व कब सुनेगा  !!
हमारे ग्रंथों और इतिहास में विद्यमान शांति और अध्यात्म के शाश्वत संदेश को विश्व केवल उसी स्थिति में सुनेगा, जब भारत सैन्य और आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली होगा। जब तक भारत शक्ति संपन्न नहीं होता, विश्व में शांति की कल्पना एक दिवास्वप्न ही रहेगा। भारत को मजबूत बनने के लिएए युवाओं और बच्चों को हमारे पूर्वजों की उपलब्धियों के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए। यह पुस्तक युवाओं और बच्चों में देशभक्ति की भावना पैदा करने की दिशा में एक छोटा सा प्रयास है।


परिशिष्ट - भारतीयों और इज़रायलियों द्वारा लड़े गए आश्चर्यचकित करने वाले युद्ध
भारत और इज़रायल दोनों देश दुश्मन देशों से घिरे हुए हैं, जो निरंतर उन्हें युद्ध में व्यस्त रखते हैं। भारतीय और यहूदी दोनों युद्ध में वीरता के लिए जाने जाते हैं। उनके अदम्य साहस ने 20वीं सदी में कुछ अद्वितीय लड़ाइयाँ जीती हैं।

परिशिष्ट - 1.  इज़रायलियों द्वारा लड़े गए आश्चर्यचकित करने वाले युद्ध
1967 -छह दिन का युद्ध
इज़रायल तथा पड़ोसी देशों मिस्र, जोर्डन, और सीरिया के बीच 05 से 10 जून 1967 को लड़े गए इस छह दिवसीय युद्ध को जून युद्ध, 1967 के अरब-इजरायल युद्ध, या तीसरे अरब-इजरायल युद्ध के रूप में भी जाना जाता है।
वर्ष 1948 के अरब-इज़रायल युद्ध के बाद से इज़रायल और उसके पड़ोसी देशों के बीच संबंध कभी भी पूरी तरह से सामान्य नहीं हो पाए। जून 1967 तक की अवधि तक दोनों देशों में तनाव चरम पर था। सिनाई प्रायद्वीप में इज़रायल की सीमा पर मिस्र की सेना की लामबंदी के प्रतिक्रिया स्वरूप इज़रायल ने मिस्र के हवाई ठिकानों पर हवाई हमलों का क्रम शुरू कर दिया।
इज़रायल के थोड़े से नुकसान से मिस्र के लगभग सभी वायु सेना ठिकानों के नष्ट होने से मिस्रवासी हैरान थे, जो इज़रायल की हवाई श्रेष्ठता साबित कर रही थी। इसके साथ ही, इजरायल ने गाजा पट्टी और सिनाई में तेज जमीनी आक्रमण से मिस्रवासियों को दोबारा हैरान कर दिया। कुछ प्रारंभिक प्रतिरोध के बाद मिस्र के नेता जमाल अब्देल नासेर (Gamal Abdel Nasser) ने सिनाई को खाली करने का आदेश दिया। इज़रायली सेनाए मिस्र की सेना को लक्ष्य बनाकर नुकसान पहुंचाते हुए पश्चिम की ओर आगे बढ़ी, तथा सिनाई पर विजय प्राप्त की।
नासेर ने प्रारंभ में इज़रायली हवाई हमलों को मिस्र द्वारा नाकाम करने का दावा कर उलझन की स्थिति का उपयोग कर सीरिया और जोर्डन को इज़रायल पर हमले शुरू करने के लिए प्रेरित किया। इज़रायली सेना की जवाबी कार्रवाई का परिणाम पूर्वी यरुशलेम के साथ-साथ जोर्डन के पश्चिमी तट पर अधिकार के रूप में सामने आया, जबकि इज़रायल की सीरिया के खिलाफ कार्रवाई का अंत गोलान हाइट्स पर अधिकार के रूप में हुआ।
11 जून को एक संघर्ष विराम पर हस्ताक्षर किए गए। इज़रायल के मुकाबले अरब देशों का नुकसान बहुत अधिक था, एक हजार से भी कम इज़रायली सैनिकों की तुलना में अरब सेना के 20 हजार से भी अधिक सैनिक मारे गए। इज़रायली सेना की सफलता में एक अभिनव और अच्छी तरह से लागू युद्ध योजना तथा अरब सेना की खराब गुणवत्ता और नेतृत्व को जिम्मेदार माना गया।

इज़राइल ने मिस्र से गाजा पट्टी और सिनाई प्रायद्वीप, जोर्डन से पश्चिमी तट और पूर्वी यरुशलेम, तथा सीरिया से गोलान हाइट्स अपने नियंत्रण में ले लिये।
इज़रायल के मनोबल और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में युद्ध के परिणाम के बाद बहुत अधिक वृद्धि हुई थी और इज़रायल के नियंत्रण वाला क्षेत्र भी तीन गुना बढ़ गया।
           

4 जुलाई 1976 - युगांडा में एन्टेबी हवाई अड्डे पर ऑपरेशन एन्टेबी
   
जून 1976 में 248 यात्रियों और 12 क्रू मेंबर को लेकर फ्रांस से इज़रायल जा रहे एयर फ्रांस के विमान का अपहरण कर तानाशाह ईदी अमीन के राज्य युगांडा के एन्टेबी हवाई अड्डे पर ले जाया गया। फिलीस्तीन समर्थक अपहरणकर्ताओं ने इज़रायल में बंद कैदियों को रिहा करने की मांग पूरी न करने की स्थिति में बंधकों को मारने की धमकी दी। अपहरणकर्ताओं ने गैर यहूदी बंधकों तथा विमान के चालक दल को रिहा कर दिया, लेकिन चालक दल ने तर्क दिया कि यात्रियों की सुरक्षा उनकी जिम्मेवारी है और वे वहीं रहे। कुल 105 बंधक इज़रायल से 2500 मील (4000 किमी) दूर युगांडा के प्रमुख हवाई अड्डे पर अपहरणकर्ताओं की समर्थक युगांडा की सेना के घेरे में थे।

इसमें से कोई भी इज़रायल के विशेष बलों के लिए सहयोगी नहीं था। वे जानते थे कि इस तरह की स्थिति में पूर्ण तैयारी ही एकमात्र रास्ता है। इसलिए उन्होंने युगांडा में काम कर चुके ठेकेदारों को और इसके साथ ही कुछ छोड़े गए बंधकों को भी एकत्रित किया और इज़रायल के विशेष बल के सैनिकों के अभ्यास के लिए एन्टेबी हवाई अड्डे की विशाल प्रतिकृति का निर्माण किया।
एक बार जब वे तैयार हो गए, तो 200 इज़रायली सैनिकों की टुकड़ी ने चार मालवाहक विमानों में पेड़ों की चोटी के साथ-साथ 99 फीट की ऊंचाई पर उड़ान भरी। वे उन्हें नापसंद करने वाले विभिन्न देशों के ऊपर से गुजरे।
अमीन लक्जरी वाहनों को तेज गति से चलाने के लिए जाना जाता था। बंधकों को छुड़ाने की योजना यह थी कि हवाई अड्डे पर उतरकर जल्द से जल्द कुछ लक्जरी मर्सिडीज़ और लैंड रोवर्स बंधकों वाले क्षेत्र में भेजी जाएँ, जिससे बंधकों के पास खड़े सैनिक यह सोचें कि अमीन स्वयं आ रहा है।
इज़रायली सैनिक तीन जुलाई, 1976 को रात 11 बजे हवाई अड्डे पर उतरे। एक टीम ने बंधकों को बचाया, जबकि दूसरी टीम ने सुरक्षित क्षेत्र में विमानों में ईंधन भऱने का कार्य किया। एक बड़े विमान में ईंधन भरने के लिए एक घंटा लगता है, और शत्रु पक्ष से घिरे होते हुए भी उन्होंने ऐसा कर दिखाया। 105 में से 102 बंधकों को बचा लिया गया। पांच इज़रायली कमांडो घायल हुए तथा एक यूनिट कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल जोनाथन नेतनयाहू वीरगति को प्राप्त हुए। सभी अपहरणकर्ताए तीन बंधक और युगांडा के 45 सैनिक मारे गए, तथा युगांडा की वायु सेना के 30 (कुछ का कहना है 11) रूस निर्मित मिग - 17 तथा मिग - 21 विमान नष्ट हुए। केन्या के सूत्रों ने इज़रायल का समर्थन किया था, और ऑपरेशन के बाद युगांडा के ईदी अमीन के आदेश पर युगांडा में मौजूद सैकड़ों कैन्याई लोगों की हत्या कर दी गई।
ऑपरेशन एन्टेबी का सैन्य कोडनेम ऑपरेशन थंडरबोल्ट था, कभी कभी प्रतिक्रिया स्वरूप टुकड़ी के कमांडर जोनाथन नेतनयाहू की स्मृति में ऑपरेशन जोनाथन भी कहा जाता है। वह इज़रायल के वर्तमान प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू के बड़े भाई थे।

परिशिष्ट - 2.भारतीयों द्वारा लड़े गए आश्चर्यचकित करने वाले युद्ध
अधियदि कांश भारतीय नहीं जानते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता में 1000 से अधिक शहरी क्षेत्र थे। उस समय के लोग व्यापार के लिए समुद्री रास्ते से 3500 किमी दूर बेबीलोनिया (अब अरब) जाते थे। उन्होंने ही आज के पश्चिमी शौचालयों की खोज की थी, अपने क्षेत्र में नालियों की निकासी की बेतहर व्यवस्था की थी और वे वजन और माप के लिए दशमलव पद्धति का उपयोग करते थे। लेकिन हममें से अधिकांश जानते हैं कि मिस्र और रोमन सभ्यताएँ अपने समय में श्रेष्ठ थीं, ग्रीस व रोम के लोगों ने संस्कृतियों की आधुनिक विज्ञान के आधार की खोज की (एक अन्य संदेहास्पद दावा)। अधिकतर भारतीय स्वीकार नहीं करेंगे किए विभिन्न आविष्कारों का श्रेय जिन्हें हम कॉपरनिक्स, न्यूटन और गैलीलियो जैसे अन्य यूरोपीय वैज्ञानिकों को देते हैंए उन आविष्कारों के बारे में हजारों वर्ष पूर्व आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, और भास्कराचार्य सहित अन्य भारतीय वैज्ञानिकों को जानकारी थी।
इसी तरह हमारे युवा और छात्र अलेक्जेंडर, जूलियस सीजर और नेपोलियन जैसे विदेशी युद्ध वीरों की प्रशंसा करते हैं, लेकिन वे शायद ही जानते हैं कि हमारे राजाओं पल्लव, चोल, शैलेंद्र, बप्पा रावल और ललितादित्य ने दक्षिण पूर्व एशिया, इरान, मध्य एशिया और तिब्बत पर सफलतापूर्वक विजय प्राप्त की थी। दुर्भाग्य से उनके नाम और उपलब्धियों को उचित स्थान नहीं मिला। उत्तर प्रदेश के महाराजा सुहेलदेव, महाराष्ट्र की रानी ताराबाई के नेतृत्व में मराठों, रानी वेलू Nachiyar ने दुर्जेय अफगान सेनाए मुगलों और ब्रिटिश सेना के खिलाफ चौंकाने वाली विजय प्राप्त की जो इतिहास में खो गई हैं।
- यदि आप स्वयं तथा शत्रु के बारे में जानते हैं, तो आप को सौ युद्धों के परिणाम को लेकर भी डरने की जरूरत नहीं है"
- यदि आप अपने बारे में जानते हैं, लेकिन शत्रु के बारे में नहींए तो आप को प्रत्येक हासिल जीत पर हार के परिणाम को भुगतना होगा,
- यदि आप न स्वयं को और न ही शत्रु के बारे में जानते हैंए तो आप हर युद्ध में हार का शिकार होंगे।ष्
- Sun Tzu  (चीनी सैन्य रणनीतिकार, दार्शनिक 544 ईसा पूर्व)

परिशिष्ट - ३ .भारत के बाहर हिन्दू साम्राज्य
दक्षिण पूर्व एशिया,  ईरान, मध्य एशिया और तिब्बत में भारतीय साम्राज्य
आम तौर पर यह माना जाता है कि प्राचीन भारत में हिन्दुओं ने अन्य देशों पर आधिपत्य नहीं किया। यह पूरी तरह से सत्य नहीं है। भारत में राजा और योद्धा चक्रवर्ती सम्राट की परिभाषा पर विश्वास करते थे, प्राचीन भारत में विश्व पर नैतिकता और उदारतापूर्वक शासन करने वाले आदर्श सार्वभौमिक शासक के रूप में चक्रवृत्तियों को माना जाता था। तमिलनाडु के पल्लव और चोल, उड़ीसा के शैलेंद्र, कंबु और कौडिन्य ने ऐतिहासिक रूप से दक्षिण पूर्वी एशिया पर आदर्श साम्राज्य की स्थापना की। इसी तरह राजस्थान के बप्पा रावल और कश्मीर के ललितादित्य ने न केवल अरब आक्रमणकारियों को हराकर भारत से बाहर खदेड़ा, उनका पीछा कर उनके देश के अंदर जाकर अफगानिस्तान, इरान, और मध्य एशिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया। 11वीं सदी (ईस्वी) में राजेंद्र चोल ने दक्षिण पूर्वी एशिया के विभिन्न हिस्सों पर विजय प्राप्त कीए और चीन तक पहुँचे। उन्होंने विभिन्न देशों पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ किया।
 


हालाँकिए भारतीयों ने एक बड़े क्षेत्र पर शासन कियाए उन्होंने कभी वहाँ के लोगों को गुलाम नहीं बनाया, न ही जातीय या धार्मिक आधार पर भेदभाव किया - विश्व के अधिकांश इतिहास में ऐसा देखने या सुनने को नहीं मिलता।
पहली सदी ईसा पूर्व - तमिलनाडु के पल्लव और ओडिशा के शैलेंद्र ने दक्षिण पूर्व एशिया में हिन्दू साम्राज्यों की स्थापना की
(कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम में हिन्दू सांस्कृतिक साम्राज्य)
तमिलनाडु के पल्लवों, पंड्यों, और चोल तथा उड़ीसा के कलिंग राजाओं ने पहली सदी ईसा पूर्व में सुदूर इंडोनेशिया और हिन्दचीन में हिन्दूवादी राज्यों की स्थापना की। स्थानीय भाषा में विश्व के इस हिस्से को स्वर्ण भूमि के रूप में जाना जाता है तथा कई इतिहासकारों ने इसे सुदूर भारत या बृहद भारत (Farther India or Greater India) के रूप में वर्णित किया है। बृहद भारत में हिन्दू संस्कृति की सदियों पहले पड़े प्रभाव की छाप के निशान इसकी विशेषता है - वहाँ बोली जाने वाली भाषाओं के शब्दों में संस्कृत का महत्व, वर्तमान में लिखी जाने वाली भाषाओं में भारतीय मूल के अक्षरों का महत्व, भारतीय कानून या प्रशासनिक संगठन का प्रभाव, बौद्ध धर्म के साथ ही मुस्लिम देशों के रूप में परिवर्तित देशों में हिन्दू परंपराओं का विद्यमान होना, और भारतीय कला से संबंधित मूर्तिकला व वास्तुकला में प्राचीन स्मारक तथा उन पर संस्कृत में शिलालेखों की उपस्थिति।
कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, सिंगापुर, थाईलैंड, और वियतनाम जैसे सुदूर देशों और द्वीपों में रहने वाले मानव जाति के बड़े हिस्से के भाग्य को निर्धारित करने वाली हिन्दू सभ्यता का विस्तार विश्व की महान ऐतिहासिक घटनाओं में से एक है।
 हिन्दू राज्यों ने इन क्षेत्रों में चीनी सभ्यता के विस्तार के प्रयासों को 1500 वर्षों तक रोका। वहाँ हिन्दू राजाओं द्वारा लोगों को गुलाम बनाने, आर्थिक प्रतिबंध लगाने, महिलाओं को प्रताड़ित करने, निर्दोष लोगों की हत्या, राज्यों को नष्ट करने, पुस्तकालयों और पूजा स्थलों को जलाने व नष्ट करने, या जनता को जबरन मतांतरित करने के साक्ष्य नहीं मिलते। दक्षिण पूर्वी एशिया के प्रत्येक देश में रामायण का अपना संस्करण है और गरुड़ इंडोनेशिया की राष्ट्रीय एयरलाइऩ है। मलेशिया के प्रधानमंत्री सहित सभी मंत्री पद की शपथ भगवान राम की चरण पादुका के नाम पर लेते हैं तथा नौ सुल्तानों में से एक राष्ट्रपति भगवान राम की पादुका की पवित्र धूलि के नाम पर पद की शपथ लेते हैं।
         
दक्षिण पूर्व एशिया के कंबोडिया में ख्मेर (Khmer) साम्राज्य के संस्थापक कम्बु स्वयंभू
किंवदंती है कि कम्बु स्वयंभू एक विद्वान भारतीय राजा थे। उन्होंने कंबोडिया के जंगल में प्रवेश किया। वहाँ के राजा को परास्त कर कम्बु ने राजकुमारी मेर से विवाह किया। उन्होंने उस क्षेत्र को उपजाऊ बनाकर समृद्ध देश के रूप में विकसित किया।George Coedes के अनुसार कहा जाता है कि Khambu and Mer  नामों के संयोजन से ख्मेर (Khambu+Mer=Khmer) नाम का जन्म हुआ। George Coedes (1886-1969) 20वीं शताब्दी का दक्षिण पूर्वी एशिया के पुरातत्व और इतिहास का फ्रांसीसी विद्वान था। Khmers कंबोडिया के मूल निवासी हैं। कंबोडिया के सभी राजा स्वयं को गर्व के साथ कम्बु के वंशज बताते हैं।
   
फुय़न (Funan), कंबोडिया साम्राज्य के संस्थापक कौडिण्य
दो चीनी दूतों कांग ताय और चू यिंग की रिपोर्टों के अनुसार फुय़न (Funan) राज्य की स्थापना कौडिण्य नामक भारतीय ब्राह्मण ने की थी। पहली शताब्दी में कौडिण्य को स्वप्न में निर्देश दिए गए कि वह मंदिर से चमत्कारी धनुष ले और नागा राजा की बेटी राजकुमारी सोमा (Chinese: Liu Ye, "Willow Leaf")  को युद्ध में हराए। बाद में कौडिण्य (Chinese: Hun Tien) ने (राजकुमारी सोमा) से विवाह किया तथा फुय़न वंश की स्थापना की।

         
बाद में कौडिण्य ने एक राजधानी बनाई और देश का नाम बदलकर कम्बुजा कर दिया। वास्तव में यह मिथक प्राचीन दक्षिण भारत की एक घटना पर आधारित है . दक्षिण भारत के पल्लवों ने अपने वंश के मूल की व्याख्या करने के लिए इस वंशावली का उपयोग कियाए कांचीपुरम के पहले पल्लव शासक को चोल राजा तथा नागा राजकुमारी का पुत्र माना गया। किंवदंती किसी तरह कंबोडिया पहुंची, जहाँ इसे फुय़न राजाओं ने वंश मूल की व्याख्या के लिए अपनाया और इस तरह पहला दिग्गज राजा कौडिण्य अस्तित्व में आया।
मेवाड़ राजवंश के संस्थापक बप्पा रावल (713-810 ईस्वी) ने अफगानिस्तान और ईरान तक अपने राज्य का विस्तार किया।

मेवाड़ राजवंश के संस्थापक बप्पा रावल (७१३-८१० ईसवी ) ने अफ़ग़ानिस्तान और ईरान तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया 
गलत का प्रतिरोध और सही का सहयोग करने की आवश्यकता
  बप्पा रावल गहलोत राजवंश के आठवें शासक और वर्तमान राजस्थान, भारत में मेवाड़ राजवंश (शासनकाल 734-753 ईस्वी) के संस्थापक थे। उन्होंने राजस्थान में आठवीं शताब्दी में उत्तर पश्चिमी भारत के राजपूत शासकों तथा सिंध के अरब शासकों के बीच युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें क्षेत्रीय भारतीय शासकों ने अरब हमलावरों पर शानदार जीत हासिल की।

8वीं शताब्दी में अरबों ने भारत पर हमले शुरू कर दिएए जो वास्तव में फारस (Persia )के आक्रमण का विस्तार था। बिन कासिम सिंध में राजा दाहिरसेन को हराने में सफल हो गया, लेकिन बप्पा रावल ने उसे रोक दिया। बप्पा रावल ने उसे हराया और बिन कासिम को सौराष्ट्र से होते हुए सिंधु के पश्चिमी तट (वर्तमान ब्लूचिस्तान) तक खदेड़कर वापिस भेज दिया। उसके बाद तब बप्पा रावल गज़नी की ओर बढ़े और स्थानीय शासक सलीम को हराया। बप्पा रावल और उनकी सेनाओं ने कंधार (अफगानिस्तान) और इरान के शहरों खुरासान, तुरन, और इस्पाहन पर आक्रमण किया और उन्हें अपने साम्राज्य के अधीन किया। इस प्रकार उन्होंने न केवल भारत की सीमाओं की रक्षा की, बल्कि एक संक्षिप्त अवधि के लिए सीमा का विस्तार करने में भी सफल हुए।

कश्मीर के शासक ललितादित्य मुक्तपीड
कश्मीर के शासक ललितादित्य मुक्तपीड (शासनकाल : 724 - 760 ईस्वी) ने अफगानिस्तानए मध्य एशिया और तिब्बत पर शासन किया
ललितादित्य भारतीय इतिहास के एक अन्य गुमनाम नायक है। वे कश्मीर क्षेत्र के सबसे शक्तिशाली शासक थे। इस राजवंश ने 625 ईस्वी से 1003 ईस्वी तक उत्तर पश्चिमी भारत को प्रभावित किया।

इतिहासकार कल्हन की रचना श्राजतरंगिनीश् ललितादित्य के विजय अभियान की प्रशंसा करती है। कल्हन ने अपनी राजतरंगिनी में उत्तर भारत और मध्य एशिया में आक्रामक सैन्य अभियानों का श्रेय राजा ललितादित्य को दिया है। भारत में संग्रहालय अभियान के अग्रणी Hermann Goetz (1898-1976) कल्हन के विवरण की वास्तविकता की पुष्टि करते हैं। हाल ही में सामने आए साक्ष्य भी राजतरंगिनी में वर्णित घटनाओं और विजय की पुष्टि करते हैं। कल्हन के अलावा चीनी, तुर्की, और तिब्बती विद्वानों ने भी उन्हें महान विजेता के रूप में वर्णित किया है।
715 ईस्वी में मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर विजय प्राप्त की। बाद में 730 ईस्वी में तुर्क जुनाड शासक बना। लेकिन अरब की सेना को ललितादित्य और यशोवर्मन की संयुक्त सेनाओं का सामना करना पड़ा। तुर्क अरब सेनाओं को हिन्दू गठबंधन की सेनाओं ने आसानी से हरा दिया। कहा जाता है कि ललितादित्य ने अपनी स्वीकृति के रूप में तुर्कों को सिर के आधे बाल मुंडवाने का आदेश दिया। ललितादित्य के विभिन्न विजय अभियानों का इरानी विद्वान यात्री Al-biruni (973 - 1048 ईस्वी) ने वर्णन किया है। उदाहरण के लिए ।Al-biruni  के अनुसार कई सदियों तक चैत्र मास (मार्च) के दूसरे दिन ललितादित्य की तुर्कों पर जीत के उपलक्ष्य में उत्सव मनाया जाता था।
ललितादित्य हारे हुए अरबों को सबक सिखाकर पीछे धकेलने को उत्सुक था। इसलिए उसने दर्दिस्तान या दर्द-देश (उत्तरी पाकिस्तान, और भारत में कश्मीर तथा उत्तरी पूर्वी अफगानिस्तान के भाग) और आज के उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान, दक्षिणी किर्गीस्तान, तथा दक्षिण पश्चिमी कजाखिस्तान तक फैले मध्य एशिया के भाग पर विजय प्राप्त की। जब तिब्बत ने कश्मीर पर आक्रमण किया, तो ललितादित्य ने तिब्बतियों को पराजित किया।
ललितादित्य ने कश्मीर को दक्षिण और मध्य एशिया में सबसे शक्तिशाली राज्य के रूप में स्थापित किया। ललितादित्य के शासन के दौरान राज्य की सीमाओं में पूर्व में तिब्बत से पश्चिम में इरान और उत्तर में तुर्किस्तान तक का क्षेत्र था। ललितादित्य न केवल कश्मीर के महान राजा थे, बल्कि भारत के महान राजाओं में से भी एक थे।


राजेंद्र चोल प्रथम (शासनकालरू 1014 - 1044 ईस्वी) ने दक्षिण पूर्व एशिया पर विजय प्राप्त की
चोल सम्राट राजेंद्र चोल को भारत के महान शासकों तथा सेनापति के रूप में जाना जाता है। 1014 ईस्वी में अपने पिता राजराज चोल प्रथम के बाद वे राजा बने। उन्होंने बंगाल और बिहार के राजा महि पाल को हराया। अपने शासन काल के दौरान उन्होंने चोल साम्राज्य को भारत के सबसे शक्तिशाली बनाते हुए उत्तर भारत में गंगा नदी के तट तक और पश्चिम में हिन्द महासागर तक साम्राज्य का प्रभाव बढ़ाया। राजेंद्र चोल का विजय अभियान अंडमान एवं निकोबार द्वीपए श्रीलंका,  मालदीव, दक्षिण पूर्वी एशिया में मलेशिया, दक्षिणी थाईलैंड और इंडोनेशिया तक जारी रहा। वे दक्षिण पूर्व में कई देशों से होते हुए और दक्षिण चीन सहित सुदूर पूर्वी देशों में समुद्री मार्ग से आगे बढ़े। उन्होंने थाईलैंड और कंबोडिया के ख्मेर राज्य से सम्मान स्वरूप धन प्राप्त किया। सुमेत्रा, इंडोनेशिया में कुछ जनजातियों ने चोल उपाधि को अपनाया।

उन्होंने दक्षिण पूर्वी एशिया अभियान के दौरान भारत के साथ घनिष्ठ संबंध जोड़ा। इस अभियान ने चीन के साथ राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं कूटनीतिक संबंधों को भी आगे बढ़ाया। राजराज चोल प्रथम ने 1015 ईस्वी में पहले राजदूत को चीन के राजा सांग के दरबार में भेजा। उनके पुत्र राजेंद्र चोल प्रथम ने अनुसरण करते हुए 1033 ईस्वी में दूसरे राजदूत तथा 1077 ईस्वी में कुलोथुंगा (Kulothunga) चोल प्रथम ने तीसरे राजदूत को भेजा।
तमिल देश के व्यापारियों ने दक्षिण पूर्वी एशिया के विभिन्न भागों में स्वयं को मजबूती से स्थापित किया। 1088 ईस्वी में बर्मा और सुमात्रा में व्यापारी संगठन का गठन किया गया। भारतीय इतिहासकार वी.आर. रामचंद्र दीक्षित के अनुसार चोल काल में तमिल व्यापारियों को आस्ट्रेलिया तथा पोलिनेशिया के बारे में कुछ जानकारी थी।
       


परिशिष्ट - 3. विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ बड़े युद्ध
विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ भारत द्वारा लड़े युद्धों में से कुछ को मानव इतिहास के सर्वश्रेष्ठ युद्धों में गिना जाता है।
1033 ईसवी : 13-14 जून, 1033 में बहराइच का युद्ध
एक दलित राजा सुहेलदेव ने 100ए000 अफगान आक्रमणकारियों को हराते हुए तलवार का शिकार बनाया। एक भी हमलावर को बख्शा नहीं गया।

युद्ध में शत्रु को छोड़ना बुरा हैए मौका आने पर वह आग के बिना भी आपको जलाकर खाक कर सकता है -  चाणक्य
सालार मसूद (1015 - 1032 ईस्वी) सुल्तान महमूद गजनवी का भांजा था। जब वह 11 वर्ष तब उसने अपने मामा के साथ सोमनाथ पर आक्रमण में भाग लिया था। सालार मसूद भारत का इस्लामीकरण करना चाहता था. इसलिए उसने मई 1031 में 100,000 से अधिक सैनिकों  जिसमें 50,000 घुड़सवार भी थे, के साथ भारत में प्रवेश किया। भारत में उसके आगे बढ़ने के प्रयास को श्रावस्ती के दलित राजा सुहेलदेव ने उत्तर भारत के 17 क्षत्रीय शासकों के साथ गठबंधन बनाकर चुनौती दी। राजा सुहेलदेव के नेतृत्व में भारतीयों ने दो दिन के अंतराल (13- 14 जून, 1033) में अफगान आक्रमणकारी सालार मसूद को हराकर उसके 100,000 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। जैसे तय किया था उन्होंने एक भी सैनिक को नहीं छोड़ा,  ना ही युद्ध बंदी बनाया, बल्कि सालार मसूद सहित सभी का तलवार से काम तमाम कर दिया। राजा सुहेलदेव औऱ सालार मसूद की कथा फारसी भाषा में मिरात-ए-मसूदी (Mirat-i-Masudi) में उपलब्ध है।

17वीं शताब्दी : शिवाजी महाराज ने वियतनाम को मुक्ति के लिए प्रेरित किया
छत्रपति शिवाजी महाराज (1627 - 1680) ने उत्तर भारत में मुगलों के और दक्षिण भारत के भामिनी सुल्तानों के कई शक्तिशाली सेनापतियों को हराया, और संत समर्थ गुरू रामदास के मार्गदर्शन में एक हिन्दू साम्राज्य की स्थापना की। वह अपनी गुरिल्ला युद्ध प्रणाली के कारण पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं, इस प्रणाली के माध्यम से वह अपने से कई गुना बड़ी सेना को सरलता से हरा देते थे।
उत्तरी वियतनाम 1955 से 1975 तक सबसे धनी और शक्तिशाली देश अमेरिका के साथ युद्ध में रत था। अंत में उत्तरी वियतनाम 20 वर्षों से चल रहे युद्ध में अमेरिका को हराने में सफल हुआ और देश को एकजुट किया। युद्ध की लंबी और कठिन अवधि के दौरान वियतकांग (viyatcong) के नेताओं ने शिवाजी महाराज और उनके सेनापतियों की वीर गाथा को वियतनाम के सैनिकों को सुनाकर उनमें विश्वास भरा और उत्साहित किया। अंत में यह वियतनाम के सैनिकों को जीत तक ले गया। लैटिन अमेरिकी सेना के नेताओं Fidel Castro and Che Guevara ने भी क्यूबा में स्वतंत्रता संग्राम में शिवाजी की गुरिल्ला युद्ध तकनीकों का उपयोग किया। शिवाजी सच्ची हिन्दू भावना के अनुसार केवल दुश्मन सैनिकों पर आक्रमण करते, और कभी निर्दोष लोगों, महिलाओं या बच्चों को निशाना नहीं बनाते थे, दुर्भाग्य से अधिकांश कायर आतंकी आजकल यही कर रहे हैं।

1700 - 1707 ईस्वी: मुगल सम्राट औरंगजेब के खिलाफ ताराबाई का युद्ध
वर्ष 1700-1707 में जब औरंगजेब के नेतृत्व में शक्तिशाली मुगल सेना मराठों के साथ लड़ रही थी, इस पर प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार का कहना है कि 'इस अवधि के दौरान,  महाराष्ट्र में सर्वोच्च मार्गदर्शन करने वाला कोई मंत्री नहीं था, बल्कि रानी ताराबाई मोहिते थीं। उसकी प्रशासनिक प्रतिभा और चरित्र की शक्ति ने भयानक संकट के समय में देश को बचा लिया।'

ताराबाई भोंसले (1675 -1761) भारत के मराठा साम्राज्य के शाही घराने से थीं। वह साम्राज्य के संस्थापक शिवाजी के पुत्र छत्रपति राजाराम भोंसले की रानी थीं। 1700 ईस्वी में पति की मृत्यु के बाद मुगलों के मराठा शासित क्षेत्रों पर कब्जा करने के प्रयासों के खिलाफ प्रतिरोध को जीवित रखने में उनकी प्रशंसनीय भूमिका रही। ताराबाई प्रसिद्ध मराठा सेनापति हम्बीराव मोहिते की पुत्री थी। 1700 ईस्वी में राजाराम की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने पुत्र शिवाजी द्वितीय को राजाराम का उत्तराधिकारी और स्वयं को संरक्षक घोषित किया। राज्य के संरक्षक के रूप में ताराबाई ने औरंगजेब की सेनाओं के खिलाफ जिम्मा संभाला। ताराबाई घुड़सवारी में निपुण थीं, और युद्ध के दौरान स्वयं ही युद्ध की रणनीति बनाती थीं। 1705 ईस्वी तक मराठों ने नर्मदा को पार किया तथा मालवा के हिस्से में घुसपैठ की।
       


औरंगजेब का दक्षिण पर आक्रमण:  1681 ईस्वी में शिवाजी की मृत्यु के एक साल बाद मुगल बादशाह औरंगजेब स्वयं 500,000 (30,000 हाथी और 50,000 ऊंटों के साथ) की एक सेना लेकर दक्षिण में अपेक्षाकृत कम युवा और कम दुर्जेय राज्यों को समाप्त करने के लिए बढ़ा। यह हर प्रकार से एकतरफा युद्ध था। मराठा वीर 26 वर्षों तक बहादुरी के साथ लड़े, कभी बिना किसी नेतृत्व और कई बार बिना किसी वेतन के भी, लेकिन राष्ट्रवाद से प्रेरित होकर उन्होंने (मराठा सैनिकों ने) विशाल मुगल साम्राज्य को दिल्ली की सीमाओं तक सीमित कर दिया। प्रारंभ में मराठा प्रतिरोध का नेतृत्व संभाजी (1681-1689), उसके बाद राजाराम (1689-1700), और अंत में 1700 ईस्वी से आगे रानी ताराबाई ने किया। मराठा साम्राज्य की रानी ताराबाई एक वीरांगनी महिला थी, जिसने अपने पति की मृत्यु और नई राजधानी सतारा के पतन पर भी समय या आँसू व्यर्थ नहीं किए। ताराबाई ने अपनी जनता में उत्साह का संचार किया और औरंगजेब के सामने कड़ा प्रतिरोध किया।
रानी ताराबाई के नेतृत्व में मराठों की शक्ति निरंतर बढ़ती गई, जिस कारण औरंगजेब को रक्षात्मक रुख अपनाने को मजबूर होना पड़ा। रानी ताराबाई अभियान को निर्देशित करने और सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए निरंतर एक किले से दूसरे किले तक घूमती रही। स्वतंत्रता के युद्ध में मराठों की सफलता में रानी का अदम्य व्यक्तित्व एक विशेष स्थान रखता था। रानी के नेतृत्व में मराठों ने बुरहानपुर, सूरत, भरूच, और पश्चिमी तट पर मुगलों व पुर्तगालियों से संबंधित अन्य समृद्ध शहरों को तबाह कर दिया। मराठों ने दक्षिण कर्नाटक पर भी अपना शासन स्थापित किया।
अमेरिका के भारतविद प्राध्यापक Stanley Wolpert का कहना है कि -
दक्षिण (डेक्कन) की विजयए जिसके लिए औरंगजेब ने अपने जीवन के अंतिम 26 वर्ष लगा दिए, यह कई तरह से विनाशकारी विजय थी, शह मात के इस खेल में युद्ध के अंतिम दशक में एक लाख जीवन देकर कीमत चुकानी पड़ी। सोने और रुपयों के रूप में खर्च राशि का शायद ही सही अनुमान लगाया जा सकता है। औरंगजेब का पड़ाव एक चलती फिरती राजधानी की तरह था, 30 मील की परिधि में टेंटों का एक शहर, लगभग 250 बाजार, पांच लाख शिविरार्थी, 50,000 ऊंट और 30,000 हाथी.... यहाँ तक कि औरंगजेब भी 90 की आयु के करीब पहुंचने पर इस सबका उद्देश्य समझ नहीं पा रहा था... "मैं अकेला आया था और मुझे एक अजनबी के रूप में जाना है। मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूँ, न ही यह कि मैं क्या कर रहा हूँ", 1707 ईस्वी में अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले वृद्ध औरंगजेब ने अपने बेटे आजम के सामने यह स्वीकार किया।
मुगल सम्राट का कहना था कि 'मैंने बहुत पाप किए हैं, और मैं नहीं जानता कि कौन सी सजा मेरा इंतजार कर रही है।'
1691 ईस्वी में औरंगजेब का मुगल साम्राज्य दक्षिण में तंजौर और Trichinapalli  तक फैला था। उस समय तक के भारतीय इतिहास में यह सबसे बड़ा साम्राज्य था। लेकिन वीर रानी ताराबाई और संकल्पित मराठों ने व्यवस्थित ढंग से इसके आकार को कम कर दिया था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद एक दशक के भीतर ही मुगल दिल्ली तक ही सीमित हो गए थे। 1758 ईस्वी तक मराठा सैनिक दिल्लीए मुल्तान और पेशावर पहुंच गए। जब अंग्रेज आएए तो वे मुगलों से नहींए बल्कि पूरे भारत में मराठों से लड़ रहे थे।
रानी ताराबाई भारतीय इतिहास में सबसे प्रसिद्ध महिलाओं में से एक हैं।

1780 ईस्वीरू शिव-गंगा (Shivaganga)  का युद्ध, जिसमें रानी वेलू नाचियार (Velu Nachiyar) ने केवल महिलाओं की सेना से अंग्रेज सेना को हराया
 
वीर मंगाई वेलू नाचियार रामनाथपुरमए तमिलनाडु की राजकुमारी थीं और रामनाड राज्य के राजा चेल्लमुत्थु सेतुपति (Chellamuthu Sethupathy) की इकलौती संतान थी। वह युद्ध रणनीति, हथियारों के उपयोग, घुड़सवारी और तीरंदाजी सहित मार्शल आर्ट, सिलमबम (Silambam) लाठी से लड़ाई में प्रशिक्षित थीं। वह कई भाषाओं  जैसे फ्रेंच, अंग्रेजी, उर्दू में विद्वान थी। उसका विवाह शिव-गंगा के राजा से हुआ, जिससे उनकी एक बेटी थी।

रानी वीरांगना वेलू नाचियार (जन्म 03 जनवरी 1730- मृत्यु 25 दिसंबर 1796)
रानी वेलू का पति मुत्थु वडुगनाथ पेरिय उदैय थेवर (Muthuvaduganathaperiya Udaiyathevar) एक युद्ध में ब्रिटिश सैनिकों और आर्कोट के नवाब के बेटे द्वारा मारा गया। तब रानी को भी युद्ध में शामिल होना पड़ा और वह अपनी बेटी के साथ बच निकली। आठ साल तक डिंडुकुल के समीप वीरुपची (Virupachi) में पालयकारर गोपाल नायकर (Palayakaarar Geopaala Naayakkar) के संरक्षण में रही। इस अवधि के दौरान उसने पुरुषों और महिलाओं की सेनाओं का गठन किया। उसने महिला सेना का नाम अपनी दत्तक पुत्री -Udaiyaal  के सम्मान में Udaiyaal रखा,  जो एक अंग्रेज सेना के शस्त्रागार को तबाह करते समय शहीद हो गई।
उसने अंग्रेजों पर हमला करने के उद्देश्य से गोपाल नायकर से सहायता मांगी। 1780 ईस्वी में उसने केवल महिलाओं की सेना के साथ अंग्रेज सेना का सामना किया। उसने पुरुष सैनिकों और गोपाल नायकर की सेना को आर्कोट के नवाब की सेना को रोकने के लिए भेजाए जो अंग्रेज सेना की सहायता के लिए आया था। वेलू नाचियार अंग्रेजों से सफलतापूर्वक लड़ी। जब उसे अंग्रेज सेना का शस्त्रागार मिल गयाए तो उसने एक आत्मघाती हमले की योजना बनाई, एक वफादार सैनिक कुईली (Kuyili) ने स्वयं को तेल में डुबोया औऱ खुद को आग लगाकर शस्त्रागार में चली गई। इस बलिदान ने युद्ध की दिशा ही बदल दी और वेलू नाचियार ने अपने क्षेत्र को हासिल कर लिया।
महारानी नाचियार बहुत कम शासकों में से थीए जिन्होंने अंग्रेजों से अपना राज्य युद्ध में लड़कर हासिल किया और दस से अधिक वर्षों तक शासन किया। वीर मंगाई वेलू नाचियार भारत में आजादी के लिए अंग्रेजों से लड़ने वाली पहली रानी थी। पश्चिमी ताकतों को केवल महिला सेना के बल पर हराने वाली वह शायद दुनिया की एकमात्र रानी हैं। 31 दिसंबरए 2008 को  रानी के सम्मान में भारत सरकार ने विशेष डाक टिकट जारी किया।
1897 ईस्वी: 12 सितंबरए 1897 का सारागढ़ी (Afganistan) का युद्ध
यदि कोई कहता है कि वह मृत्यु से  डरता नहीं है, या तो वह झूठ बोल रहा है, या एक भारतीय सैनिक है।
जब 10,000 सशस्त्र अफगानों ने हमला किया, तो 21 सिख भारतीय सैनिक 800 दुश्मनों की मौत का कारण बने

12 सितंबर, 1897 को सारागढ़ी के युद्ध में ब्रिटिश भारत के 21 सिख सैनिकों को युद्ध लड़ने या युद्ध मैदान से भाग जाने का विकल्प दिया गया, जिस पर 10,000 पश्तून अफगान जनजातियों ने आक्रमण किया था। सिखों ने युद्ध मैदान से भागने के बजाय जीवन के अंतिम क्षण तक लड़ने का विकल्प चुना। हालाँकि सभी सिख शहीद हो गए, पर उन्होंने आधुनिक पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत के तिराह में 800 दुश्मन सैनिकों को मार गिराया। सिख टुकड़ी का नेतृत्व हवलदार ईशर सिंह कर रहे थे।
     
जब सारागढ़ी के युद्ध में सैनिकों की वीरता का वर्णन ब्रिटिश संसद में किया गया, तो संसद सदस्यों ने खड़े होकर वीरों की शहादत को सम्मान प्रदान किया। समस्त 21 सिख सैनिकों को मरणोपरांत उस समय के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार विक्टोरिया क्रॉस के समान  इंडियन आर्डर ऑफ मेरिट (Indian Order of Merit) से सम्मानित किया। यह वीरता पुरस्कार वर्तमान में भारत के राष्ट्रपति द्वारा दिए जाने वाले परमवीर चक्र के समान है। यह युद्ध भारतीय सैन्य परंपरा, पूर्वी सैन्य सभ्यता, ब्रिटिश साम्राज्य के सैन्य इतिहास, और सिख इतिहास में एक प्रतिष्ठा बन गया है।

23 सितम्बर, 1918 : हाइफ़ा का युद्ध
22-23 सितंबर, 1918 हाइफ़ा का युद्ध -  मानव इतिहास के महान युद्धों में से एक
जोधपुर और मैसूर के महाराजा द्वारा प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इज़रायल(पश्चिम एशिया) भेजे गए भारतीय सैनिकों ने बड़ी संख्या में अपने जीवन का बलिदान दिया। इस प्रक्रिया में उन्होंने तुर्क, जर्मनी, और आस्ट्रियाई संयुक्त सेनाओं को हराया तथा सितंबर 1918 में इज़रायल के बंदरगाह शहर हाइफा को मुक्त करवाया। इस युद्ध को भारतीय सैनिकों ने मात्र तलवार, भाले और पैदल लड़कर आधुनिक हथियारों जैसे बंदूक, टैंकों से सुसज्जित एक बड़ी सेना को उनके घर में घुसकर मारा और हराया, इसलिए ये युद्ध विश्व के महान युद्धों में एक विशेष स्थान रखता है। इज़रायल जो फिलीस्तीन के रूप में जाना जाता था, उस पर 1516 ईसवी के बाद से 402 वर्षों से तुर्की साम्राज्य का शासन था.
इज़रायल की वर्तमान सरकार द्वारा उनकी समाधियों को सम्मान प्रतीक के रूप में संरक्षित करके रखा है। उनके नाम, वीरता और बलिदान को हर साल 23 सितंबर को याद किया जाता है, और  यह स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में भी शामिल किया गया है।

1962 ईस्वी: भारत.चीन युद्ध - रेजांग-ला (Rezang -La ) दर्रे पर युद्ध -
एक युद्ध जिसमें 123 में से 109 अधिकारियों और जवानों ने भारतीय क्षेत्र की रक्षा करते समय बलिदान दियाए और 1200 से अधिक चीनी सैनिकों (कुछ का कहना है कि 1700 सैनिक) को हताहत किया। इस बलिदान ने कवि प्रदीप को अमर गीत 'ए मेरे वतन के लोगो ... लिखने  के लिए प्रेरित किया।
   
सन् 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान, लद्दाख की चुशूल घाटी में 18 नवंबर को रेजांग-ला दर्रे पर युद्ध अभूतपूर्व साहस, वीरता और सर्वोच्च बलिदान की गाथा है। युद्ध 16,000 फीट की ऊंचाई पर लड़ा गयाए जहाँ पर्याप्त ऑक्सीजन की भी कमी थी। रेजांग-ला से आ रही बर्फीली हवाएँ शरीर को काट रही थीं। रास्ते की विकटता के कारण तोप ले जाना असंभव था, जिसका मतलब था कि भारतीयों को तोपों के बिना ही लड़ना था। सुबह की मद्धम रोशनी में चीनी सेना राइफल और लाइट मशीनगन के साथ आगे बढ़ी।
13वीं कुमाऊं बटालियन की यादव कंपनी का नेतृत्व करने वाले मेजर शैतान सिंह भाटी को दुश्मन के साथ मोर्चे पर अदम्य साहस और आत्म बलिदान के लिए मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

1965 ईस्वी: सितंबर 1965 में असल उत्तर का युद्ध
08 से 10 सितंबर, 1965 तक असल उत्तर के युद्ध के दौरान तीन दिनों में पाकिस्तान के 99 से अधिक टैंक नष्ट हो गए। यह भारत के लिए एक निर्णायक जीत थी। इस टैंक युद्ध को द्वितीय विश्व युद्ध में कुर्स्क के युद्ध के बाद सर्वश्रेष्ठ युद्धों में से एक के रूप में वर्णित किया गया है। भारत के 10 टैंक, जबकि पाकिस्तानी सेना के अधिकतर पेटन, कुछ शर्मन औऱ चफी टैंकों सहित 99 से अधिक टैंक नष्ट हुए।
     
यह युद्ध एक भारतीय सैनिक अब्दुल हमीद की वीरता का भी गवाह बनाए हमीद को एक Recoilless राइफल से दुश्मन के सात टैंकों को उड़ाने के लिए भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। इस युद्ध ने युद्ध स्थल पर पेटन नगर या पेटन शहर के निर्माण का मार्ग बनाया। यह इसलिए क्योंकि पाकिस्तानी सेना द्वारा युद्ध में उतारे गए अधिकतर पेटन टैंक युद्ध मैदान में या तो नष्ट कर दिए गए या उन पर कब्जा कर लिया गया।

1971 ईस्वी : बांग्लादेश की मुक्ति
1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध (3 से 16 दिसंबर, 1971)
केवल 13 दिनों तक चलने वाला 1971 का भारत-पाक युद्ध इतिहास में सबसे कम समय तक चलने वाले युद्धों में से है। भारतीय जीत इस तथ्य के कारण शानदार है कि अमेरिका राजनीतिक और युद्ध सामग्री दोनों तरह से पाकिस्तान का समर्थन कर रहा था। भारतीय सेना ने पाकिस्तान के सशस्त्र बलों के 81,000 वर्दीधारी सैनिकों सहित 93,000 हजार पाकिस्तानियों को युद्ध बंदी बनाया और 147,570 वर्ग किमी. क्षेत्रफल वाले देश बांग्लादेश को मुक्त करवाया।
लेफ्टिनेंट जनरल नियाज़ीए लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा के समक्ष समर्पण के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर रहे हैं। पीछे बाएँ से दाईं ओर खड़े - वाइस एडमिरल कृष्णन, एयर मार्शल दीवान, लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंहए मेजर जनरल जेएफआऱ जैकब (फ्लाइट लेफ्टिनेंट कृष्णमूर्ति के साथ)। ऑल इंडिया रेडियो के वयोवृद्ध समाचार प्रस्तुतकर्ता सुरोजीत सेन दाईं ओर माइक्रोफोन पकड़े हुए।
16 दिसंबर 1971 को ढाका में पाकिस्तानी सशस्त्र सेना के पूर्वी क्षेत्र के कमांडर द्वारा समर्पण के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर और बांग्लादेश के रूप में नए देश के गठन के साथ युद्ध प्रभावी ढंग से समाप्त हुआ।
पाकिस्तान के लिए यह पूरी तरह से शर्मनाक हार थी, और अपने चिर प्रतिद्वंदी भारत के हाथों मिली हार से उसे मनोवैज्ञानिक झटका लगा था। पाकिस्तान ने अपनी आधी जनसंख्या और अर्थव्यवस्था के अहम भाग को खो दिया थाए तथा दक्षिण एशिया में उसकी भू-राजनीतिक भूमिका के लिए भी झटका था। पाकिस्तान की तबाही जैसा उदाहरण वर्तमान इतिहास में नहीं दिखता है।



जनरल मानेकशॉ की उदारता
जब भारत के प्रधानमंत्री ने जनरल मानेकशॉ को ढाका जाने तथा पाकिस्तानी सेना के समर्पण को स्वीकार करने के लिए कहाए तो उन्होंने जाने से मना कर उदारतापूर्वक कहा कि "यह सम्मान उनकी सेना के पूर्वी क्षेत्र के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा को मिलना चाहिए।"

1971 का भारत-पाक युद्ध
लोंगेवाल का युद्ध - 04 से 07 दिसंबर, 1971
भारत ने दो सैनिक खोए, जबकि पाकिस्तान ने 200 सैनिक खोए, भले ही पाकिस्तान ने पूरी तैयारी और सुसज्जित होकर भारत पर अचानक हमला किया था। पाकिस्तान के 34 टैंक और 500 वाहन भी नष्ट हुए, और भारत का एक वाहन नष्ट हुआ।

4 Hawk Hunters, 01 एचएएल कृषक और एम40 राइफल एवं एक जीप से युक्त 120 भारतीय सैनिकों पर 04 दिसंबर, 1971 को 2,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने अचानक हमला कर दिया। पाकिस्तान के पास अधिक गोला बारूद भी था। उन्हें एक गतिशील पैदल टुकड़ी और 45 अमेरिकी पेटन टैंकों का सहयोग प्राप्त था। फिर भी, भारतीयों के लिए मनोबल बढ़ाने वाली निर्णायक विजय के साथ 07 दिसंबर को 04 दिन में युद्ध समाप्त हो गया।
युद्ध में एम40 राइफल से युक्त एक जीप नष्ट होने के साथ दो भारतीय सैनिक शहीद हुए। दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना के दो सौ सैनिक मारे गए। पाकिस्तानी सेना को टैंकों का भी नुकसान उठाना पड़ाए पाकिस्तान के 34 टैंक नष्ट हुए, या छोड़ने पड़े और 500 अतिरक्त वाहनों का नुकसान हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक युद्ध में एक तरफ के 34 टैंकों पर कब्जा करने या नष्ट करने की सबसे अधिक टैंकों के नुकसान की घटना है।
   
 4-7 दिसंबर, 1971 - सन् 1971 के भारत.पाकिस्तान युद्ध के दौरान पश्चिमी क्षेत्र में पहला बड़ा संघर्ष था, यह आक्रमणकारी पाकिस्तानी सेना और भारतीय रक्षक सेना के बीच राजस्थान राज्य के थार के रेगिस्तान में स्थित सीमांत चौकी लोंगेवाल पर लड़ा गया।
ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चंदूरी को भारत के दूसरे सर्वोच्च वीरता सम्मान महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। पाकिस्तान ने अपने मेजर जनरल मुस्तफा को लापरवाही के लिए सजा दी।


             
 लेखक का परिचय


रवि कुमार ने वर्ष 1970 में इंजीनियरिंग की । इस दौरान 1969.1970 में वे विश्व के सबसे बड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के अखिल भारतीय महासचिव रहे ।
राष्ट्र कार्य  के लिये प्रवृत्त होकर उन्होंने लार्सन एंड टुब्रो में प्रोजेक्ट इंजीनियर के पद से त्याग पत्र देकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक बनना तय किया और गुजरात के युवाओं व महाराष्ट्र के वनवासी क्षेत्रों में कार्य प्रारंभ किया । वे 40 देशों में 200 से अधिक योग शिविर लगा चुके हैं । साथ ही 20 से अधिक देशों के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों मेंए न्यूजीलैण्ड की रॉयल सोसाइटी समेत तथा सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थाओं में वैदिक गणित पर 500 से अधिक कार्यशालायें आयोजित कर चुके हैं। वर्तमान में वे हिन्दू स्वयंसेवक संघ के अंतरराष्ट्रीय सह . संयोजक तथा विश्व अध्ययन केंद्रए मुम्बई के परामर्शदाता हैं। अंग्रेजी, हिंदी, व तमिल भाषा में समान अधिकार रखने वाले रवि कुमार जी को भारतीय अर्थव्यवस्था विज्ञान, तकनीक, विकास, इतिहास, परंपरा, संस्कृति तथा साहित्य आदि विषयों पर उद्बोधन हेतु अनेक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार व कांफ्रेस में आमंत्रित किया जाता है। उन्होंने विविध विषयों पर पुस्तकें लिखी हैंए जो अनेक भारतीय भाषाओ में अनुदित होकर बहुप्रशंसित हुई - जैसे, योग- विश्व को भारत की अनमोल भेंट. हिन्दू रेसर्जेंस इन इंडोनेशिया. हिन्दू जीनियस, आदि। उनकी योग पुस्तक का विमोचन भारत सरकार में विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने प्रथम अंतरराष्ट्रीय योग दिवस 21 जून 2015 के अवसर पर न्यूयॉर्क शहर में किया। बाद में होंगकोंग में भारत के पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी जी और सयुंक्त राज्य अमीरात में प्रसिद्ध गायक यसुदास जी द्वारा लोकार्पण हुआ।


लेखक द्वारा लिखी अन्य पुस्तकें
1. 'ग्लिम्प्सेस ऑफ़ हिंदू जीनियस 'अंग्रेज़ी - यह पुस्तक प्राचीन काल के साथ साथ आधुनिक काल के भारतीयों और प्रवासी भारतीयों की उपलब्धियों का वर्णन करती है।
2. 'हिंदू प्रतिभा दर्शन 'हिंदी  यह ग्लिम्प्सेस ऑफ़ हिंदू जीनियस का हिंदी संस्करण है. यह पुस्तक तमिल और तेलुगु भाषाओं में भी उपलब्ध है।
3. 'रामायण अराउंड द वर्ल्ड - अ लिविंग लीजेंड - यह पुस्तक आज के जीवन मेंए और बर्मा, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया., वियतनाम, चीन, कोरिया, जापान, मलेशिया, इंडोनेशिया, पाकिस्तान और  ईरान की सभ्यताओं पर रामायण के प्रभाव का वर्णन करती है।
4. 'हिंदू रीसर्जेंस इन साउथ ईस्ट एशिया ' यह दक्षिण.पूर्वी एशिया में दिखने वाली भारतीय संस्कृति की स्पष्ट झलक की अद्भुत कहानी है।
5. 'हाइफ़ा'- the इंडियन हीरोइज्म इन इजराइल ' यह पुस्तक उस प्रेरणादायक कहानी का वर्णन करती है कि कैसे जोधपुर और मैसूर के घुड़सवार योद्धाओं ने 1918 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अपनी वीरता से इज़राइल के एक समुद्री बंदरगाह हाइफ़ा को मुक्त कराया था और इस प्रकार इजराइल के आधुनिक राज्य के लिए रास्ता खोल दिया था।

लिखी जा रही पुस्तकें ; जो बाद में प्रकाशित होंगी.

1. 'इंडिया'ज़ रीसर्जेंस इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी ' यह पुस्तक बताती है कि किस प्रकार भारत और प्रवासी भारतीय वैश्विक व्यापार, राजनीति और संस्कृति के केंद्रीय मंच पर प्रवेश कर रहे हैं।

2. 'The इंडियन मुस्लिम्स- रोल मॉडल्स फॉर इंडियन  यूथ ' यह पुस्तक उन  महान् मुस्लिम संतों, विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओंए संगीतकारों, स्वतंत्रता सेनानियों, देशभक्तों और प्रशासकों के शानदार जीवन का वर्णन करती है, जिन्होंने हमारी मातृभूमि और मानवता की सेवा की थी.

3. ' वैदिक मैथमेटिक्स एंड इंडियाष्ज़ कॉन्ट्रिब्यूशन इन मैथमेटिक्स एंड साइंस' यह पुस्तक वैदिक ऋषि बोधायन से लेकर रामानुजम और डॉ. मंजुल भार्गव तक, अनेक भारतीयों के गणित में योगदान का वर्णन करती है.

4. 'इंडिया इजराइल टूगेदर फ़ॉर टू थाउजेंड इयर्स ' इस पुस्तक में ईसा पूर्व 500 से लेकर आज तक के इन दोनों देशों के संबंधों का वर्णन है. ये पुस्तक यहूदी धर्म और हिंदू धर्म के बीच की समानताओं का वर्णन करती हैए बताती है कि कैसे हिंदुओं ने यहूदी शरणार्थियों की मदद की थी और भारत में यहूदियों का क्या योगदान है.